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जानिए असेम्बली बम कांड से जुड़ी कुछ महत्वपूर्ण बातें

1929 असेम्बली बम कांड

नई दिल्ली: 8 अप्रैल, सन् 1929 को भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने असेम्बली में बम फेंका था। भारत की राजधानी दिल्ली में सेन्ट्रल असेम्बली का अधिवेशन चल रहा था, पब्लिक सेफ्टी बिल पेश हुआ, बहस हुई, वोट लिए गए। एकाएक भवन में एक धमाका हुआ और धुआँ छा गया। बड़े-बड़े अधिकारी भागते दिखाई दिए, सभा-भवन सूना हो गया।

 

1929 असेम्बली बम कांड जानिए असेम्बली बम कांड से जुड़ी कुछ महत्वपूर्ण बातें

 

 

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आधे घंटे बाद पुलिस सदल पहुंची और दो नवयुवक जो गैलरी में खड़े थे बम फैंकने के अपराध में गिरफ्तार कर लिए गए। भारत-माता के यह दो सपूत थे – भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त। गिरफ़्तारी के बाद सरकार की ओर से कहा गया कि यह दोनों नवयुवक न केवल असेम्बली बम कांड के अभियुक्त हैं बल्कि लाहौर सांडर्स हत्याकांड के भी अभियुक्त हैं। जनता को इनसे कोई सहानुभूति नहीं होनी चाहिए। जनता ने उत्तर में कहा- ‘बी. के. दत्त ज़िंदाबाद’ ‘भगतसिंह ज़िंदाबाद’ बच्चा-बच्चा गर्ज उठा-“बी. के. दत्त ज़िदाबाद!” “भगतसिंह ज़िदाबाद!” “इन्कलाब ज़िदाबाद!”

 

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बता दें भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त को 12 जून,1929 को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी। बी. के. दत्त को आजीवन कारावास की सजा काटने के लिए काला पानी जेल भेज दिया गया था। जिसेक बाद बटुकेश्वर दत्त ने जेल में ही सन 1933 और सन 1937 में भूख हड़ताल की थी। वहीं 1938 में बटुकेश्वर दत्त को जेल से रिहा कर दिया गया था। इसके बाद फिर बटुकेश्वर दत्त को गिरफ्तार कर लिया गया था और सन 1945 में रिहा किया गया था। आजादी के बाद सन 1947 में बटुकेश्वर दत्त ने अंजली दत्त से शादी की और उसके बाद वो पटना में रहने लगे।

 

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भगत सिंह यद्यपि रक्तपात के पक्षधर नहीं थे परन्तु वे वामपंथी विचार पर बिल्कुल नहीं चले, तथा कार्ल मार्क्स के सिद्धान्तों से उनका दूर दूर तक नाता नही था। यद्यपि, वे समाजवाद के पक्के पोषक भी थे। कलान्तर में वामपंथियों द्वारा उनको वामपंथी बता कर युवाओ को भगत सिंह के नाम पर बरगलाने के आरोप लगते रहे। कांग्रेस के साथ सत्ता में भागीदार रहने के बावजूद वामपंथी भगत सिंह को शहीद का दर्जा नही दिलवा पाए,क्योंकि वे केवल भगत सिंह के नाम का इस्तेमाल युवाओं को अपनी पार्टी से जोड़ने के लिए करते थे। उन्हें पूँजीपतियों की मजदूरों के प्रति शोषण की नीति पसन्द नहीं आती थी।

 

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उस समय चूँकि अँग्रेज ही सर्वेसर्वा थे तथा बहुत कम भारतीय उद्योगपति उन्नति कर पाये थे, अतः अँग्रेजों के मजदूरों के प्रति अत्याचार से उनका विरोध स्वाभाविक था। मजदूर विरोधी ऐसी नीतियों को ब्रिटिश संसद में पारित न होने देना उनके दल का निर्णय था। सभी चाहते थे कि अँग्रेजों को पता चलना चाहिये कि हिन्दुस्तानी जाग चुके हैं और उनके हृदय में ऐसी नीतियों के प्रति आक्रोश है। ऐसा करने के लिये ही उन्होंने दिल्ली की केन्द्रीय एसेम्बली में बम फेंकने की योजना बनायी थी।

 

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भगत सिंह चाहते थे कि इसमें कोई खून खराबा न हो और अँग्रेजों तक उनकी ‘आवाज़’ भी पहुँचे। हालाँकि प्रारम्भ में उनके दल के सब लोग ऐसा नहीं सोचते थे पर अन्त में सर्वसम्मति से भगत सिंह तथा बटुकेश्वर दत्त का नाम चुना गया। निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार 8 अप्रैल 1929 को केन्द्रीय असेम्बली में इन दोनों ने एक ऐसे स्थान पर बम फेंका जहां कोई मौजूद नही था, अन्यथा उसे चोट लग सकती थी। पूरा हाल धुएँ से भर गया।

 

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भगत सिंह चाहते तो भाग भी सकते थे पर उन्होंने पहले ही सोच रखा था कि उन्हें दण्ड स्वीकार है चाहें वह फांसी ही क्यों न हो। इसलिए उन्होंने भागने से मना कर दिया। उस समय वे दोनों खाकी कमीज़ तथा निकर पहने हुए थे। बम फटने के बाद उन्होंने “इंकलाब-जिन्दाबाद, साम्राज्यवाद-मुर्दाबाद!” का नारा लगाया और अपने साथ लाये हुए पर्चे हवा में उछाल दिये। इसके कुछ ही देर बाद पुलिस आ गयी और दोनों को ग़िरफ़्तार कर लिया गया।

 

2 साल जेल में रहे भगत सिंह

 

जेल में भगत सिंह ने करीब 2 साल रहे थे। इस दौरान वे लेख लिखकर अपने क्रान्तिकारी विचार व्यक्त करते रहे। जेल में रहते हुए उनका अध्ययन बराबर जारी रहा। उनके उस दौरान लिखे गये लेख व सगे सम्बन्धियों को लिखे गये पत्र आज भी उनके विचारों के दर्पण हैं। अपने लेखों में उन्होंने कई तरह से पूँजीपतियों को अपना शत्रु बताया था। उन्होंने लिखा कि मजदूरों का शोषण करने वाला चाहें एक भारतीय ही क्यों न हो, वह उनका शत्रु है। उन्होंने जेल में अंग्रेज़ी में एक लेख भी लिखा जिसका शीर्षक था मैं नास्तिक क्यों हूँ? जेल में भगत सिंह व उनके साथियों ने 64 दिनों तक भूख हडताल की। उनके एक साथी यतीन्द्रनाथ दास ने तो भूख हड़ताल में अपने प्राण ही त्याग दिये थे।

 

भगत सिंह का मृत्यु प्रमाण पत्र

 

26 अगस्त, 1930 को अदालत ने भगत सिंह को भारतीय दंड संहिता की धारा 129, 302 तथा विस्फोटक पदार्थ अधिनियम की धारा 4 और 6एफ तथा आईपीसी की धारा 120 के अंतर्गत अपराधी सिद्ध किया था। 7 अक्तूबर, 1930 को अदालत के द्वारा 68 पृष्ठों का निर्णय दिया, जिसमें भगत सिंह, सुखदेव तथा राजगुरु को फांसी की सजा सुनाई गई थी। फांसी की सजा सुनाए जाने के साथ ही लाहौर में धारा 144 लगा दी गई थी।

 

 

इसके बाद भगत सिंह की फांसी की माफी के लिए प्रिवी परिषद में अपील दायर की गई परन्तु यह अपील 10 जनवरी, 1931 को रद्द कर दी गई। इसके बाद तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष पं. मदन मोहन मालवीय ने वायसराय के सामने सजा माफी के लिए 14 फरवरी, 1931 को अपील दायर की कि वह अपने विशेषाधिकार का प्रयोग करते हुए मानवता के आधार पर फांसी की सजा माफ कर दें।

 

 

भगत सिंह की फांसी की सज़ा माफ़ करवाने हेतु महात्मा गांधी ने 17 फरवरी 1931 को वायसराय से बात की फिर 18 फरवरी, 1931 को आम जनता की ओर से भी वायसराय के सामने विभिन्न तर्को के साथ सजा माफी के लिए अपील दायर की। यह सब कुछ भगत सिंह की इच्छा के खिलाफ हो रहा था क्यों कि भगत सिंह नहीं चाहते थे कि उनकी सजा माफ की जाए।

 

23 मार्च 1931 को भगत सिंह को दी गई थी फांसी

 

23 मार्च 1931 को शाम में करीब 7 बजकर 33 मिनट पर भगत सिंह तथा इनके दो साथियों सुखदेव व राजगुरु को फांसी दे दी गई थी। फाँसी पर जाने से पहले वे लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे और जब उनसे उनकी आखरी इच्छा पूछी गई तो उन्होंने कहा कि वह लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे और उन्हें वह पूरी करने का समय दिया जाए।

 

 

कहा जाता है कि जेल के अधिकारियों ने जब उन्हें यह सूचना दी कि उनके फाँसी का वक्त आ गया है तो उन्होंने कहा था- “ठहरिये! पहले एक क्रान्तिकारी दूसरे से मिल तो ले।” फिर एक मिनट बाद किताब छत की ओर उछाल कर बोले – “ठीक है अब चलो।”

 

फाँसी पर जाते समय वे तीनों मस्ती से गा रहे थे –

 

मेरा रँग दे बसन्ती चोला, मेरा रँग दे।
मेरा रँग दे बसन्ती चोला। माय रँग दे बसन्ती चोला ।

                                                                                                      जिन्दगी तो अपने ही दम पर  जी जाती है….

                                                                                                       दूसरो के कंधों पर तो सिर्फ जनाजे उठाए जाते हैं।

 

By: Ritu Raj

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