मुंबई। विनोद खन्ना ने उस वक्त सियासत के गलियारे में कदम रखा, जब अमिताभ बच्चन राजनीति से रुसवा होकर बैरंग हो चुके थे। सुनील दत्त कांग्रेस के सिपाही थे। राजेश खन्ना ने भी कांग्रेस का दामन संभाल रखा था और शत्रुघ्न सिन्हा भारतीय जनता पार्टी में आए थे।
उस दौर में सितारों को राजनीति के दरवाजे पर जाने में संकोच होता था। अमिताभ बच्चन जिस तरह से राजनीति से रुसवा होकर फिल्मों में लौटे थे, उसके बाद सियासत से सितारों को दूर रहने की सलाह दी जाने लगी थी। विनोद खन्ना ने 1997 में सियासत के मैदान में कदम रखा और भारतीय जनता पार्टी के सदस्य बने।
1999 के आम चुनावों में उनको पंजाब के गुरदासपुर से भारतीय जनता पार्टी ने उनको चुनावी मैदान में उतार दिया और विनोद खन्ना ने जीत के साथ सियासती पारी की शुरुआत की। इस जीत का उनको इनाम भी मिला। जून 2002 में वाजपेयी सरकार के मंत्रिमंडल में फेरबदल हुआ, तो विनोद खन्ना को सांस्कृतिक और पर्यटन मंत्रालय में राज्यमंत्री बनाया गया। इसी सरकार में बाद में उनको विदेश मंत्रालय में राज्यमंत्री के तौर पर भेजा गया। 2004 के आम चुनावों में वाजपेयी सरकार के कई मंत्री पराजित हुए और भाजपा की सरकार ये चुनाव हार गई, लेकिन गुरदासपुर से विनोद खन्ना ने गुरदासपुर से अपनी जीत का दौर कायम रखा। 2009 में विनोद खन्ना को फिर इसी सीट से टिकट मिला, लेकिन इस बार वे चुनाव हार गए। 2014 में फिर से विनोद खन्ना ने इसी सीट से एक बार फिर जीत हासिल की और वे फिर से संसद में पंहुच गए।
विनोद खन्ना की सियासी पारी की एक खासियत ये रही कि उन्होंने इस दौर में सियासती रुतबा भी कायम रखा, लेकिन इसे निजी रिश्तों से दूर रखा। राजेश खन्ना, सुनील दत्त और शबाना आजमी के साथ सियासत के स्तर पर मतभेद होने के बाद भी उनके निजी रिश्तों में कोई अंतर नहीं आया। संजय दत्त जब मुंबई बम कांड में गिरफ्तार हुए, तो विनोद खन्ना ने सुनील दत्त का राजनैतिक विरोध करने से मना कर दिया था, बल्कि वे संकट के उस दौर में दत्त परिवार के साथ खड़े रहे।