देहरादून शहर से सात किमी. दूर टपकेश्वर मंदिर है। गुफा के अंदर स्थित यह मंदिर, उत्तराखंड में भगवान शिव को समर्पित सबसे पुराने मंदिरों में से एक है। इस मंदिर में इष्टदेव भी टपकेश्वर महादेव के नाम से जाने जाते है, जो भगवान शिव है। यहां दोशिवलिंग हैं। दोनों ही स्वयं प्रकट हुए हैं। आस-पास में संतोषी माँ और श्री हनुमान के लिए मंदिर हैं।
मंदिर के पूरे क्षेत्र में एक वन है और आगंतुकों को मंदिर तक पहुंचने के लिए अंतिम 1 किलोमीटर चलना पड़ता है। मुख्य शिवलिंग एक गुफा के अंदर स्थित है। यह एक प्राकृतिक गुफा है और गुफा की छत पर एक प्राकृतिक झरना है। शिवलिंग पर छत से पानी की बूंदों की लगभग वर्षा होती रहती है। यह वातावरण एक तरह का “अभिषेक” ही है । गुफा का मंदिर , टौंस नामक एक मौसमी नदी के तट पर स्थित है। इस मंदिर के आस पास कई गंधक झरने है। शिवलिंगो में से एकरुद्राक्ष की 5151 मोतियों से बना है। गुफा बहुत छोटी सी जगह में स्थित है और काफी संकीर्ण भी है। दर्शन के लिए लगभग झुक कर घुटनो के बल जाना पड़ता है ।
एेसी मान्यता है कि इसी जगह को द्रोणपुत्र अश्वत्थामा की जन्मस्थली व तपस्थली माना गया है, जहां अश्वत्थामा के माता-पिता गुरु द्रोणाचार्य व कृपि की पूजा-अर्चना से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें पुत्र प्राप्ति का वरदान दिया था। जिसके बाद ही उनके घर अश्वत्थामा का जन्म हुआ था।
एक बार की बात है कि अश्वत्थामा ने अपनी माता कृपि से दूध पीने की इच्छा जाहिर की, जब उनकी यह इच्छा पूरी न हो सकी तब अश्वत्थामा ने घोर तप किया। जिससे प्रसन्न होकर भगवान भोलेनाथ ने वरदान के रूप में गुफा से दुग्ध की धारा बहा दी।
तब से ही यहां पर दूध की धारा गुफा से शिवलिंग पर टपकने लगी, जिसने कलियुग में जल का रूप ले लिया। इसलिए यहां भगवान भोलेनाथ को टपकेश्वर कहा जाता है। मान्यता यह भी है कि अश्वत्थामा को यहीं भगवान शिव से अमरता का वरदान मिला। उनकी गुफा भी यहीं है जहां उनकी एक प्रतिमा भी विराजमान है।
एक लोक मान्यता यह भी है कि गुरू द्रोणाचार्य को इसी स्थान पर भगवान शंकर का आर्शीवाद प्राप्त हुआ था। स्वयं महादेव ने आचार्य को यहां अस्त्र-शस्त्र और पूर्ण धनुर्विद्या का ज्ञान दिया था।
वीडियों में जानें टपकेश्वर मंदिर का इतिहास: