लखनऊ। मंगलवार के प्रातः कालीन सत् प्रसंग में रामकृष्ण मठ लखनऊ के अध्यक्ष स्वामी मुक्तिनाथानन्द ने बताया कि प्रत्येक मनुष्य के भीतर ईश्वर विराजमान है एवं वह आनंद का स्रोत है। उपनिषद् में कहा गया है- ‘रसो वै सः’ अर्थात जो स्वयं कर्त्ता ब्रह्म है, वो आनंद स्वरूप है, एवं उनके आनंद के स्पर्श से ही सब प्राणी आनंद में रहते हैं।
उन्होंने कहा कि यदि हमारे भीतर यह अपरोक्ष आनंद न रहता तो हम जीवित नहीं रह सकते। अर्थात वह परमात्मा ही सबको आनंद मे रखते हैं, इसलिए माँ काली का दूसरा नाम है-आनंदमयी। स्वामी जी ने कहा कि इस आनंद को प्राप्त करने के लिए हमारा जो ‘मै पन’ है उसको छोड़ना पड़ेगा।
मैं यह शरीर हूँ, यह मेरा संसार है, यह मेरा घर है, यह मेरी संपत्ति है, इस प्रकार का ‘मैं पन’ हमें ईश्वर से दूर कर देते हैं, लेकिन जो ‘मैं पन’ हमें ईश्वर से युक्त कर देते हैं उसको ‘विद्या का मै पन’ कहा जाता है।
स्वामी ने बताया कि भगवान श्री रामकृष्ण कहते हैं ‘भक्ति का मै’ मे, ‘विद्या का मैं’ मे तथा ‘बालक का मैं’ मे मे दोष नहीं है।’ शंकराचार्य ने ‘विद्या का मैं’ लोक शिक्षा के लिए रखा था। ‘बालक के मैं’ मे दृढ़ता नहीं है, आसक्ति नहीं है इसलिए बालक स्वाधीन रहता है।
बालक गुणातीत है वह किसी गुण के वश मे नहीं है। अभी-अभी वह गुस्सा हो गया, थोड़ी देर में कहीं कुछ नहीं। देखते ही देखते उसने खेलने के लिए घरौंदा बनाया फिर तुरंत ही उसे भूल भी गया। अभी तो खेलने वाले साथियों को प्यार कर रहा है, फिर कुछ दिनों के लिए अगर उन्हें न देखा तो भूल भी गया।
स्वामी जी ने कहा कि बालक सत्व, रजः और तमः किसी गुण के वश नहीं है। ईश्वर भी ऐसे ही गुणातीत है। यदि इस प्रकार का ‘मै पन’ हमारे पास रहे तो हम भी बालक जैसे आनंदमय होकर स्वाधीन भाव से विचरण कर सकते हैं।
श्री रामकृष्ण कहते हैं- ‘तुम ईश्वर हो, मैं भक्त हूँ। यह भक्ति का भाव ‘भक्ति का मैं’ है। तो ‘भक्ति का मैं’ क्यों रखते हैं इसका कुछ अर्थ है- ‘मैं’ मिटने का तो है ही नहीं तो फिर वो पड़ा रहे। ‘दास का मैं’, ‘भक्त का मैं’ पक्का ‘मैं’ कहलाता है। इस प्रकार के ‘मैं पन’ से हमारे मे कोई आसक्ति नहीं रहेगी और हम ईश्वर से युक्त होकर आनंद में भरपूर रहेंगे।