अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे के बाद वहां के हालात दिल दहला देने वाले हो गए थे। जिस तरह से लोग अफगानिस्तान छोड़ने के लिए एयरपोर्ट की तरफ भाग रहे थे। उसका वीडियो सोशल मीडिया पर आग की तरह फैल गया। अफगानिस्तान की हालत पर अरब देश जगत से कई तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आई हैं। एक तरफ कुछ लोग थे जो तालिबान का समर्थन कर रहे थे। वहीं दूसरी तरफ कुछ लोगों ने तालिबान की जीत बताया और कहा कि ये पश्चिम शक्तियों पर मुसलमानों की जीत है। कुछ लोगों का कहना है कि तालिबान इस्लाम का गलत इस्तेमाल करने वालों के लिए क्रूर है।
बता दें कि इसको लेकर काफी सवाल भी खड़े हो रहे हैं कि आखिर तालिबान से अरब जगत के लोग सहमत और असहमत क्यों हैं। क्या आईएसआईएस तालिबान के लिए खतरा बन सकता है। तालिबान आंदोलन और आईएसआईएस पहले से ही दोनों सलाफी-जिहादी संगठन है। तालिबान का जन्म नब्बे के दशक में हुआ था। और उसके बाद अफगानिस्तान में सोवियत संघ की वापसी के बाद 1994 में पाकिस्तान में इसका सितारा चमका।
हालांकि पाकिस्तान कभी इस बात को कबूल नहीं करता है कि तालिबान में उसकी भागीदारी है। लेकिन लोगों का मानना है कि सबसे पहले रूढ़ीबादी व्यवहार पाकिस्तान मजहबी संगठनों में देखा गया। इस संघठनों को विदेशों से आने वाले पैसों से चलाया जाता है। बाहरी देश इन संगठनों के फंडिंग करते हैं जिससे ये सारे संगठन मजबूत होते हैं।
1990 में जब तालिबान ने अफगानिस्तान की सत्ता संभाली थी उस वक्त उसे सिर्फ तीन देशों से मान्यता मिली थी। पाकिस्तान, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात. तालिबान का नेतृत्व उस वक्त मुल्ला उमर के हाथों में था। मुल्ला उमर के 2013 में मारे जाने के बाद मुल्ला मंसूर ने संगठन का नेतृत्व संभाला। 2016 में एक अमेरिकी हमले में मंसूर की मौत हो गई। जिसके बाद उनके नायब हेबतुल्ला अखुंदज़ादा ने तालिबान का कार्यभार संभाला. माना जाता है कि अखुंदज़ादा कट्टर विचारधारा को मानने वाले थे।