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प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की रणनीति में तात्या टोपे का महत्वपूर्ण स्थान था

क्रांति के लिए गुप्त संगठन काम करता था प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की रणनीति में तात्या टोपे का महत्वपूर्ण स्थान था

1857 के स्वातंत्र्य समर के सूत्रधारों में तात्या टोपे का महत्वपूर्ण स्थान है। वे क्रांति के योजक नाना साहब पेशवा के निकट सहयोगी और प्रमुख सलाहकार थे। वे एक ऐसे सेना-नायक थे जो ब्रिटिश सत्ता की लाख कोशिशों के पश्चात भी उनके कब्जे में नहीं आए। इनको पकड़ने के लिए अंग्रेज सेना के 14-15 वरिष्ठ सेनाधिकारी तथा उनकी 8 सेनाएं 10 माह तक भरसक प्रयत्न करती रहीं। लेकिन असफल रहीं। इस दौरान कई स्थानों पर उनकी तात्या से मुठभेड़ें हुई परन्तु तात्या उनसे संघर्ष करते हुए उनकी आंखों में धूल झोंककर सुरक्षित निकल जाते।

 

प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की रणनीति में तात्या टोपे का महत्वपूर्ण स्थान था
प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की रणनीति में तात्या टोपे का महत्वपूर्ण स्थान था

 

तात्या टोपे को हुई कथित फांसी के सम्बन्ध में तत्कालीन अंग्रेज सरकार ने दस्तावेज तथा समकालीन कुछ अंग्रेज लेखक तथा बाद में वीर सावरकर, वरिष्ठ इतिहासकार आर.सी.मजूमदार व सुरेन्द्र नाथ सेन ने अपने ग्रंथों में तात्या टोपे को 7 अप्रैल, 1859 में पाड़ौन (नवरवर) राज्य के जंगल से, उस राज्य के राजा मानसिंह द्वारा विश्वासघात कर पकड़वाना बताया है।

आपको बता दें कि 18 अप्रैल, 1859 को शिवपुरी में उनको फांसी देने की बात भी लिखी गई है। कुछ समय पूर्व तक यही इतिहास का सत्य माना जाता रहा है। परन्तु गत 40-50 वर्षो में कुछ लेखकों व इतिहासकारों ने परिश्रम पूर्वक अन्वेषण कर अपने परिपुष्ट तथ्यों व साक्ष्यों के आधार पर इस पूर्व ऐतिहासिक अवधारणा को बदल दिया है।”तात्या टोपे की कथित फांसी के दस्तावेज क्या कहते हैं” नाम छोटी परन्तु महत्वपूर्ण पुस्तक के रचियता गजेन्द्र सिंह सोलंकी तथा तात्या टोपे छ नामक ग्रंथ के लेखक निवास बाला जी हर्डीकर ऐसे लेखको में अग्रणी हैं। दोनों ही लेखक इस पर सहमत हैं कि 18 अप्रैल को शिवपुरी में जिस व्यक्ति को फांसी लगी थी।

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वह तात्या नहीं थे बल्कि वह तात्या के साथी नारायण राव भागवत थे। इनका कहना है कि राजा मानसिंह तात्या के मित्र थे। उन्होंने योजनापूर्वक नारायण राव भागवत को अंग्रेजों के हवाले किया। और तात्या को वहां से निकालने में मदद की। जिन दो पंडितों का उल्लेख अंग्रेज लेखकों तथा भारतीय इतिहासकारों ने घोड़ो पर बैठकर भाग जाने का किया है, वे और कोई नहीं, तात्या टोपे और पं.गोविन्द राव थे जो अंग्रेजों की आंखों में धूल झोंककर निकल गए।

राजा मानसिहं स्वयं अंग्रेजों के शत्रु थे और उनसे बचने के लिए, छिपकर पाडौन के जंगलों में रह-रहे थे। अंग्रेजों ने चालाकी से उनके घर की महिलाओ को बंदी बना दिया और उनको छोड़ने की शर्त जो अंग्रेजों ने रखी थी वह थी मानसिंह द्वारा समर्पण करना तथा तात्या को पकड़ने में मदद करना।तात्या को पकड़ने वाले प्रभारी अंग्रेज मेजर मीड ने स्वयं अपने पत्र में लिखी है।

शर्त के बाद तात्या टोपे तथा राजा मानसिंह ने गम्भीर विचार विमर्श कर योजना बनाई। जिसके तहत मानसिंह का समर्पण उनके परिवार की महिलाओं का छुटकारा तथा कथित तात्या की गिरफ्तारी की घटनाएं अस्तित्व में आई।इसमें ध्यान देने की बात यह है कि जिसको स्वयं मेजर मीड ने भी लिखा है कि तात्या को पकड़ने के लिए राजा मानसिंहने अपने ऊपर जिम्मेदारी ली थी। यह तात्या को पकड़ने की एक शर्त थी, जिसे अंग्रेज सरकार ने (मेजर मीड के द्वारा) स्वीकार किया था। वास्तव में यह राजा मानसिंह व तात्या की एक चाल थी।

नारायणराव भागवत को लगी फांसी के सम्बन्ध में जो एक महत्वपूर्ण तथ्य दोनों लेखकों के सामने आया। उसका उल्लेख उन दोनों ने इस प्रकार किया है- ‘बचपन में नारायण राव (तात्या के भतीजे) ग्वालियर में जनकंगज के स्कूल में पढ़ते थे। उस समय स्कूल के प्राधानाचार्य रघुनाथराव भागवत नाम के एक सज्जन थे। एक दिन रघुनाथ राव ने बालक नारायणराव को भावना पूर्ण स्वर में बताया कि “तुम्हारे चाचा फांसी पर नहीं चढ़ाए गए थे। उनकी जगह फांसी पर लटकाये जाने वाले व्यक्ति मेरे बाबा थे।” दोनों लेखकों के अनुसार उन्होंने स्वयं भी रघुनाथराव भागवत के बाबा को हुई फाँसी की बात का अनुमोदन उनके पौत्र रघुनाथराव के प्राप्त किया।’

“तात्या टोपे की कथित फांसी दस्तावेज क्या कहते हैं?” पुस्तक के लेखक गजेन्द्र सिंह सोलंकी स्वयं राजा मानसिंह के प्रपौत्र राजा गंगासिंह से उनके निवास पर मिले थे। जब राजा मानसिंह के कथित विश्वासघात की बात हुई तो उन्होंने इस बात को झूठा बताया। आग्रह करने पर उन्होंने लेखक को उनके पास पड़ा पुराना बस्ता खोलकर उसमें पड़े कई पत्र और दस्तावेज खोलकर दिखाए। जिसमें दो और पत्र थे जो तात्या जी की कथित फाँसी के बाद तात्या को लिखे गए थे।

“सिद्धे राजे मान्य राजे महाराज तांतिया साहिब पांडुरंग जी एतैसिद्ध महाराजधिराज राजा नूपसिंह जू देव बहादुर की राम-राम बांचने। आगे आपकी कृपा से भले हैं। आगे हम मुआने आइके राठ में पो होचे आपु के पास पौचत है इस वास्ते इतल करौ है आप के मोरचा लगै है जिसमे हमको कोई रास्ता मैं रोके नहीं जादा, शुभ मिती फागुन सुदी 6 सं. 1917″इस पत्र की मूल प्रति अभिलेखागार भोपाल में तात्या टोपे की पत्रावली में सुरक्षित है। यह चिट्ठी राजा नृपसिंह द्वारा तात्या को लिखी गई है। तात्या को कथित फाँसी संवत् 1919 (सन् 1859) में लगी थी।

इस प्रकार संवत् 1918 में लिखी दूसरी चिट्ठी महारानी लडई रानी जू के नाम है, जो राव माहोरकर ने लिखी है जिसमें तात्या के जिंदा रहने का सबूत है। इस पत्र की फोटो प्रति लेखक ने अपनी पुस्तक में दी है।इसके अतिरिक्त 2 अन्य पत्रों के अंश भी उस्क पुस्तक में दिये गये हैं, जिसमें तात्या को सरदार नाम से सम्बोधित किया गया है। जिसमें पहला पत्र राजाराम प्रताप सिंह जू देव का लिखा हुआ है, जो तातिया को कथित फांसी के एक वर्ष दो माह बाद का लिखा हुआ है। यह पत्र राजा मानसिंह को सम्बोधित किया गया है।

दूसरा पत्र भी राजा मानसिंह को सम्बोधित है और वह पं.गोविन्दराव द्वारा कथित फांसी के चार वर्ष बाद का लिखा हुआ है। प्रथम पत्र के अंश- “आगे आपके वहां सिरदार हमराह पं.गोविन्दराव सकुशल विराजते हैं और उनके आगे तीरथ जाइवे के विचार है आप कोई बात की चिन्ता मन में नल्यावें” “अपरंच आपको खबर होवे के अब चिंता को कारण नहीं रहियो खत लाने वारा आपला विश्वासू आदमी है। कुल खुलासे समाचार देहीगा सरदार की पशुपति यात्रा को खरच ही

पाठकों को ज्ञात हो कि कालपी का युद्ध सरदार (तात्या) के नेतृत्व में लड़ा गया था। उसे सरदार घोषित किया गया था। जो बस्ता टीकमगढ़ से प्राप्त हुआ है उसमें भी तात्या को सरदार सम्बोधित किया गया है। इन दोनों चिट्टियों को राजा मानसिंह के प्रपौत्र राजा गंगासिंह ने पहली बार सन् 1969 में घ् धर्म युग ‘ में प्रकाशित कराया था। प्रसिद्ध इतिहासवेत्ता डॉ. मथुरालाल शर्मा ने इन पत्रों की अनुकृतियों को देखकर प्रसन्नता प्रकट की तथा इसे सही घोषित करते हुए शोध के लिए उपयोगी बताया था।

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