जब भीड़ ही फैसला करने लगे तो उस देश का क्या होगा ? जब भीड़ ही गलत और सही मे फर्क करने लगे तो न्याय व्यवस्था का क्या काम ? कही ऐसा तो नही कि बुद्धिजीवियों के नजर मे यही प्रजातंत्र है ? अगर कुछ लोग अराजकता के इतने मुरीद हो ही गए हैं तो प्रशासन आखिर क्या कर रहा है? मॉब लींचिग के बढ़ते हुए मामलो को देखकर तो यही प्रतीत होता है कि भारत मे अब न्याय व्यवस्था की जरुरत नही है, जब लोग ऑन द स्पॉट फैसला कर ही दे रहे हैं तो पुलिस और कोर्ट का क्या काम? असम से लेकर तमिल नाडू तक के पुलिस स्टेशन मॉब लींचिग के केसेस से भरे पड़े हैं। कलयुग आज अपने नाम का प्रकोप छोड़ रहा है और सच अफवाहों के मुकाबले हार जा रहा है। ज्यादातर केस बच्चा चोरी के अफवाहों के बिनाम पर हुआ है। आज अगर आप किसी बच्चे को टॉफी देते हैं तो भी आप पर खतरा है, आपको कभी भी कोई कूट सकता है। आप अगर किसी से रास्ता पुछते हैं तो भी डर बना रहता है कि कही वो आपके धर्म से आपके नियती का अंदाजा लगाकर आपको धुन ना दे। विगत एक साल के अंतराल मे 27 लोग अपना जान गंवा चुके हैं। भीड़ ने अपना फैसला सुनाया और ऑन द स्पॉट सजा को ऐलान हो गया। पुलिस मौके पर पहुँच कर भी सिर्फ उन लोंगो के शव लाने के काम आ सकी।
ये बात मानसिक रुप से विकलांग लोंगो की थी, लेकिन भारत के नेता तो और भी निराले हैं। केन्द्रीय मंत्री किरन रिजीजू ने मॉब लींचिग को विदेशी षड्यंत्र करार देते हुए ये भी कहा है कि ये विपक्ष की चाल है, विपक्ष ये सब करवा रहा है ताकि सरकार सही ढ़ग से काम ना कर पाए। कोई ये नही सोच रहा है कि कैसे इस बिमारी से निजाद पाया जाए। सवाल ये भी उठता है कि क्या सोशल मीडिया अब अराजकता फैलाने के काम आ रहा है? आखिर मॉब लींचिग मोदी सरकार के कार्यकाल मे ही क्यों तुल पकड़ रहा है? क्या वाकई मोदी सरकार जीरो टोलरेंस के अपने वादे पर कायम है? इन सब सवालों के बीच ये भी अहम हो जाता है कि कैसे हम इस प्रकार के घटना को रोकेंगे?