क्या उत्तर प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव 2022 को देखते हुए केंद्र सरकार ने कृषि कानून वापस लेने का फैसला लिया ? उत्तर प्रदेश की राजनीति में किसानों क्या भूमिका है ? चलिए आज खास रिपोर्ट में जिक्र आज उन सभी फैक्टरका जिसकी वजह से केंद्र सरकार को अपने कदम पीछे खींचने पड़े।
नम्बर 1- पश्चिमी उत्तर प्रदेश कहलाता है किसानों का गढ़
नम्बर 2- 100 से ज्यादा विधानसभा सीटों पर किसानों का पूरा प्रभाव
नम्बर 3- यूपी चुनावकी वजह से ही केंद्र सरकार ने वापस लिया कृषि कानून
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358 दिनों बाद तीनों कृषि कानून को वापस लेने का ऐलान
ठीक 358 दिनों बाद केंद्र सरकार ने विवादित तीनों कृषि कानून को वापस लेने का ऐलान कर दिया। 19 नवंबर की सुबह गुरु पर्व और कार्तिक पूर्णिमा के दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसकी घोषणा की और किसानों से आंदोलन खत्म करने की अपील की। विशेषज्ञों का कहना है कि 2022 में उत्तर प्रदेश समेत 5 राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों कोदेखते हुए केंद्र सरकार ने ये फैसला लिया है।
फैसले को उत्तर प्रदेश के चुनाव से जोड़ना कितना सही
सबसे ज्यादा 403 विधानसभा सीट वाले उत्तर प्रदेश के लिहाज से ये फैसला कितना बड़ा है? क्या सच में आगामी विधानसभा चुनाव हो देखते हुए केंद्र सरकार ने कृषि कानून वापस लेने का फैसला लिया? चुनाव तो पांच राज्यों में है,फिर इस फैसले को उत्तर प्रदेश के चुनाव से ही जोड़कर क्यों देखा जा रहा?
समझते हैं उत्तर प्रदेश की राजनीति में किसानों की भूमिका
उत्तर प्रदेश विधानसभा सीट और आबादी के हिसाब से देश का सबसे बड़ा राज्य है। इस राज्य की राजनीति के बारे में कहा जाता है कि यहां सत्ता का सूर्योदय पश्चिम से होता है। वही पश्चिम जो किसानों का गढ़ कहा जाता है। रोचक बात यह भी है कि प्रदेशमें आम चुनावों की शुरुआत अक्सर इसी पश्चिमी उत्तर प्रदेश होती है, जिसका असर पूरे प्रदेशमें देखने को मिलता है।
2012, 2017, 2019 तक कैसे विधानसभा चुनाव में परिस्थिति
साल 2012 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने पश्चिमी यूपी की 110 में से केवल 38 सीटें हासिल की थीं और साल 2017 में उसकी सीटों की संख्या बढ़कर 88 तक पहुंच गई। जाहिर सी बात है कि बात जब 110 सीटों की हो तो कोई भी पार्टी उसे जीतने के लिए कोई भी दांव खेल सकती है। वर्ष 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों भी भाजपा ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में शानदार जीत दर्ज की थी। लेकिन अब तस्वीर दूसरी है। पश्चिमी
उत्तर प्रदेश में ज्यादातर गन्ना किसान
किसान आंदोलन का असर उत्तर प्रदेश में शुरूसे ही कहीं दिखा तो वह पश्चिमी उत्तर प्रदेश ही था। इसकी वजह यह भी है कि इस इलाकेमें ज्यादातर गन्ना किसान हैं और वे कृषि कानून के खिलाफ चल रहे आंदोलनों में शुरू से शामिल रहे। राजधानी नई दिल्ली में आंदोलन का नेतृत्व करने वाली भारतीय किसान यूनियन इसी इलाके में ज्यादा प्रभावी है और इस वक्त किसान आंदोलन का नेतृत्व भी कर रही है। राजनीतिक पंडितों का कहना है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में नहीं कुछ तो 60 से 70 ऐसी विधानसभा सीटें हैं जिन पर गन्ना किसान हार-जीत तय करते हैं। यही कारण है कि चुनाव से ठीक पहले प्रदेश की योगी सरकार ने गन्ना की कीमतों में 25 रुपए प्रति क्विंटल की बढ़ोतरी की दी। इस सरकार में तीन में ये पहली बार हुआ।
पंचायत चुनावों में दिख चुका है असर
किसान आंदोलन शुरू होने के बाद यूपी में केवल पंचायत चुनाव ही हुए हैं। प्रदेश में जिला पंचायत सदस्य की 3050 सीटें हैं। मई में हुए चुनाव में 759 सीटें सपा, 768 सीटें बीजेपी, 319 सीटें बसपा, 125 सीटें कांग्रेस, 69 सीटें रालोद और 64 सीटें आप ने जीती थीं। 944 सीटें निर्दलियों ने जीतीं। यानी कि बीजेपी केवल एक चैथाई सीटें ही जीत पाईथी।
पंचायत चुनावों में भाजपा प्रत्याशियों का हुआ भारी विरोध
वहीं अगर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हुए पंचायत चुनावों पर नजर डालेंगे तोकिसान आंदोलन के असर को समझा जा सकता है। पश्चिम क्षेत्र में भाजपा के 14 जिला पंचायत अध्यक्ष हैं। इनमें 445 पंचायत सदस्य चुने जा सकते हैं,जिनमें भाजपा के महज 99 सदस्य ही हैं। पंचायत चुनावों के समय भाजपा के प्रत्याशियों को भारी विरोध का भी सामना करना पड़ा था। इन 14 सीटों पर नजर दौड़ाएं तो इनमें से 7 सीटें मेरठ, बुलन्दशहर, गाजियाबाद, गौतमबुद्धनगर, मुरादाबाद, अमरोहा, सहारनपुर में निर्विरोध जीत हुई हैं। इन नतीजों को देखते हुए ही किसानसंगठनों ने मिशन यूपी का ऐलान कर दिया था।
पंचायत चुनावों में सीधे मतदाताओं की ओर से चुने जाने वाले जिलापंचायत सदस्यों में राष्ट्रीय लोकदल को अच्छी खासी जीत मिली। इसकी वजह यह भी थी कि भारतीय किसान यूनियन का राष्ट्रीय लोकदल को समर्थन हासिल था। इस गठजोड़ पर भी भाजपा की नजर तो रही ही होगा।