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गीता पढ़ने से जीवन को आश्चर्य रूप से अलौकिक किया जा सकता है

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  • अध्यात्म डेस्क

सर्वमान्य तथ्य है कि श्रीमद्भगवद्गीता का पूर्ण कथन उपनिषदादि ग्रंथों पर आधारित है। स्वयं श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता के तेरहवें अध्याय के चौथे श्लोक में यह स्वीकार किया है कि जो कुछ भी इस प्रवचन में कहा गया है, वही वेदों में, ऋषियों ने बहुत प्रकार से गान किया है और ब्रह्मसूत्रों में भी उसे युक्तियुक्त ढंग से स्पष्ट किया गया है, परन्तु कुछ भाष्यकारों ने गीता प्रवचन के ऐसे अर्थ निकाले हैं जो वेदादि शास्त्रों के विरोधी हैं जो कदापि मान्य नहीं हो सकते। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि जो कुछ वेदादि सद्ग्रंथों में कहा गया है वही श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है ।

इसकी पुष्टि हेतु श्रीमद्भगवद्गीता के तेरहवें अध्याय का चतुर्थ श्लोक का उद्धृत करना समीचीन होगा –

ऋषिभिर्बहुधा गीतं छंदोंभिर्विविधैः पृथक्।

ब्रह्मसूत्रपदैश्चचैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः ।।

– श्रीमद्भगवद्गीता -13/4

अर्थात – इस क्षेत्र अर्थात शरीर और क्षेत्रज्ञ अर्थात आत्मत्त्वों के विषय में ऋषियों ने और वेदों ने विविध भान्ति से समझाया है। इसी प्रकार ब्रह्मसूत्रों में पृथक्-पृथक् शरीर, जीवात्मा और परमात्मा के विषय मंध युक्तियुक्त रीति से इसका वर्णन किया है ।

इस प्रकार श्रीकृष्ण ने स्वयं यह बात स्पष्ट कर दिया है कि वे वही बात कह रहे हैं जो हमारे वेद शास्त्रों में आदिकाल में ही कह दी गई है। श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण तो केवल उसका स्मरण मात्र करा रहे हैं । श्रीकृष्ण ने अपने कर्तव्य से विमुख अर्जुन को उसके कर्तव्य का भान कराने के लिए श्रीमद्भगवद्गीता का प्रवचन किया था।इससे यह सिद्ध होता है कि श्रीमद्भगवद्गीता वैराग्य अर्थात भक्तिप्रधान अवतारवाद का ग्रन्थ नहीं अपितु कर्मयोग का ग्रन्थ है, हां इसमें अध्यात्म का समावेश अवश्य है।

श्रीमद्भगवद्गीता के अनेक भाष्यकारों ने गीता के उपदेष्टा श्रीकृष्ण को साक्षात् भगवान् माना है, परन्तु श्रीकृष्ण अवतार तो हो सकते हैं किन्तु भगवान् अर्थात परमात्मा नहीं क्योंकि परमेश्वरोक्त वैदिक ग्रंथों के अनुसार अनादि, अजन्मा, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान परमात्मा अर्थात भगवान तो एक ही है जिसके अनेक दिव्य गुणों के कारण असंख्य नाम हैं। हां श्रीमद्भगवद्गीता में जहाँ-जहाँ श्रीकृष्ण ने मैं , मेरा, मेरे द्वारा आदि शब्दों का प्रयोग किया है वह कथन ईश्वर के लिए है ।श्रीमद्भगवद्गीता 2/61 में श्रीकृष्ण के कहे अनुसार –

तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीतमत्परः ।

वशे ही यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।।

– श्रीमद्भगवद्गीता 2/61

अर्थात -इससे उन सम्पूर्ण इन्द्रियों को वश में करके योगयुक्त हो मेरे (ईश्वर के) परायण कर दे । क्योंकि जिस पुरुष की इन्द्रिय वश में होती है, उसकी बुद्धि स्थिर होती है ।

इस श्लोक में मत्परः का अर्थ है मेरे परायण। यह गीता की प्रवचन शैली है । इसका स्पष्टीकरण महाभारत अश्वमेधिक पर्व में भी किया गया है। वहाँ श्रीकृष्ण ने कहा है कि गीता का प्रवचन मैंने योगयुक्त अवस्था में किया था । उस समय मैं ऐसे गीता का प्रवचन कह रहा था मानो परमात्मा मुझमे बैठकर कह रहा हो ।

इस प्रकार यह स्पष्ट है कि जहाँ-जहाँ श्रीकृष्ण ने मैं, मेरा इत्यादि शब्द प्रयोग किये हैं , वहाँ उसका अभिप्राय परमात्मा का ही है ।अतः मेरे परायण का अर्थ ईश्वर के परायण समझना चाहिए । इससे यह स्पष्ट होता है कि श्रीकृष्ण स्वयं परमात्मा के अवतार नहीं थे बल्कि योगिराज श्रीकृष्ण का जीवात्मा दिव्य जन्म लेता हुआ भी दुसरे जीवात्माओं की श्रेणी का ही जीवात्मा था । महाभारत ,अश्वमेधिक पर्व के एक प्रसंग के अनुसार महाभारत के युद्धोपरांत जब अर्जुन ने एक बार पुनः श्रीमद्भगवद्गीता का उपदेश सुनने की इच्छा श्रीकृष्ण से व्यक्त की तो श्रीकृष्ण ने उससे कहा –

न च शक्यं पुनर्वक्तुं अशेषेण धनञ्जय ।

– महाभारत ,अश्वमेधिक पर्व 16/11

अर्थात – हे अर्जुन !अब मैं उपदेश को ज्यों का त्यों नहीं कह सकता ।

इसी प्रकरण में श्रीकृष्ण आगे कहते हैं कि वह धर्म जो मैंने गीता में वर्णन किया है वह ब्रह्मपद को प्राप्त कराने की सामर्थ्य रखता था। वह सारा का सारा धर्म उसी रूप में दुहरा देना अब मेरे वश की बात नहीं है । उस समय तो मैंने योगयुक्त होकर परमात्मा की प्राप्ति का वर्णन किया था।

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय चार के एक से तीन श्लोकों के अनुसार श्रीकृष्ण कहते हैं, इस अविनाशी योग का ज्ञान मैंने (ईश्वर ने) आदिकाल में विवस्वान को कहा और विवस्वान ने मनु को कहा था और मनु ने अपने पुत्र इक्ष्वाकु को कहा ।इस प्रकार परम्परा से (पुत्र को पिता से) चलता हुआ यह ज्ञान राजर्षियों ने जाना और हे अर्जुन! यह योग बहुत काल से लोप हो चुका था। वही पुरातन योग ही अब मैं तेरे लिए कह रहा हूँ। तू मेरा भक्त भी है और सखा भी है । इस कारण यह अतिश्रेष्ठ तथा रहस्यमय बात तुमसे कहता हूँ ।

श्रीमद्भगवद्गीता – 4/1-3 में कहे अनुसार श्रीकृष्ण ने बताया है कि वह ज्ञान इस समय अर्थात आदि काल से ही परम्परा के अनुसार चला आता है, परन्तु बीच काल में राजा तथा अन्य मनुष्य, कामनाओं में फँसकर इस योग ज्ञान को भूल गए। श्रीकृष्ण के कहने का अभिप्राय यह है कि उनका अपना ज्ञान उनके कई जन्मों का संचित ज्ञान है ।

अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि ज्ञान संचित कैसे होता है? ऐसा माना जाता है कि ज्ञान तो पाँच कर्मेन्द्रियों से ही प्राप्त होता है।वह ज्ञान मन पर अंकित हो जाता है।उस ज्ञान के संस्कार मात्र जीवात्मा पर अंकित होते हैं।सामान्य जीवन में तो एक जन्म का ज्ञान दूसरे जन्म में नहीं जाता क्योंकि ज्ञान मन पर अंकित होता है और मन प्रकृति का अंश होने के कारण शरीर के साथ ही विनष्ट हो जाता है ।जीवनकाल में मन पर अंकित ज्ञान का आभाष ही आत्मा पर पड़ता रहता है। सांख्य दर्शन में कहा है –

कुसुमवच्च मणिः।

– सांख्य दर्शन 2-35

अर्थात- जैसे मणि के पास रंगदार फूल लाया जाए तो मणि भी उसी रंग में रंगी दिखाई देने लगती है। यह मणि पर पुष्प का रंग जीवात्मा पर चित्त का प्रतिविम्ब सामान्य कर्म की अवस्था में होता है ।कुसुम के हट जाने पर रंग हट जाता है, परन्तु जब बार-बार एक कर्म किया जाये तो उसका प्रभाव जीवात्मा पर स्थिर हो जाता है। जब प्रभाव केवल रंग का ही हो तो संस्कार कहाता है, परन्तु यदि प्रभाव पुष्प की सुगन्धि का भी हो तो यह कर्म की स्मृति कहती है ।यह योग साधना से संभव है। योग क्रियाओं में समाधि अवस्था में चित्त की वृत्तियों का जीवात्मा पर चिर प्रभाव पड़ता है।

इस प्रकार यह स्पष्ट है कि श्रीकृष्ण योगनिष्ठ आत्मा थे और वह अनेक जन्म लेते रहे हैं।वैसे तो अर्जुन का आत्मा भी अनगिनत जन्म ले चुका था, परन्तु श्रीकृष्ण का जीवात्मा योगनिष्ठ होने से उन जन्मों की बात को जानता था और वे उसे स्मरण थे। शरीर पञ्च-भौतिक है और कृष्ण का आत्मा योगनिष्ठ होने के कारण पंचभूतों (जिनसे शरीर बना है) का ईश्वर (स्वामी) है।वह जब चाहे उस पञ्च-भौतिक शरीर में आता है और जाता है ।इस प्रकार यह भी स्पष्ट है कि आदिकाल से संचित ज्ञान कृष्ण ने अर्जुन को दिया था। यदि एक वाक्य में कहा जाये तो यह ज्ञान था- धर्म की स्थापना के लिए हत्या क्षम्य है और धर्म का निश्चय करने के लिए स्थिर बुद्धि होनी चाहिए।

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