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अयोध्या मामले में थर्ड अंपायर की भूमिका छोड़ रहे विपक्षी दल के नेता

vipakshi dal अयोध्या मामले में थर्ड अंपायर की भूमिका छोड़ रहे विपक्षी दल के नेता

नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट के राम मंदिर के पक्ष में आए फैसले को विपक्षी पार्टियां ध्रुवीकरण की सियासत थमने के लिहाज से भले निर्णायक मान रही हैं। मगर सच्चाई यह भी है कि अयोध्या विवाद में अब तक ‘थर्ड अंपायर’ की भूमिका में रहे विपक्षी दलों के लिए सर्वोच्च अदालत के फैसले के बाद बीते तीन दशक के इस लबादे से बाहर आना आसान नहीं है। 

शायद तभी कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी पार्टियां सुप्रीम कोर्ट के फैसले का कवच आगे रखते हुए अपने अनुरूप राजनीतिक विमर्श की दशा-दिशा में जरूरी बदलाव का संकेत देने लगी हैं। तृणमूल कांग्रेस इसका अपवाद जरूर है जिसने पश्चिम बंगाल की अपनी सियासी चुनौतियों के मद्देनजर सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर अभी तक चुप्पी साध रखी है। विपक्षी पार्टियों को इस बात का बखूबी अहसास है कि सुप्रीम कोर्ट के निर्णय पर किसी तरह के किंतु-परंतु के सवाल को संघ-भाजपा बड़ा सियासी हथियार बना सकती है। इसीलिए अधिकांश विपक्षी दलों ने अयोध्या फैसले का संपूर्ण सम्मान करते हुए इसे स्वीकार करने की अपील करने में देर नहीं लगाई। कांग्रेस के अलावा हिन्दी पट्टी की पार्टियों मसलन समाजवादी पार्टी, राजद और बसपा की फैसले पर प्रतिक्रिया में दिखाई गई तेजी से जाहिर है कि नई परिस्थितियों के हिसाब से विपक्षी दल इस मुद्दे पर अपने राजनीतिक विमर्श को नये सिरे से गढ़ने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं।

वैसे भी चाहे कांग्रेस हो या सपा-बसपा या राजद इन पार्टियों के राजनीतिक उत्थान और ढलान में अयोध्या मुद्दे की बड़ी भूमिका रही है। भाजपा-संघ के अलावा अयोध्या विवाद से सबसे ज्यादा यही पार्टियां जुड़ी भी रहीं थी। अयोध्या में 1986 में मंदिर का ताला खुलवाने से लेकर 1989 में शिला-पूजन का काम कांग्रेस की सरकार में हुआ तो 1992 में विवादित ढांचे का विध्वंस भी नरसिंह राव की कांग्रेस सरकार के वक्त हुआ। इस विध्वंस के बाद राव सरकार ने दुबारा बाबरी मस्जिद बनाने की घोषणा भी की थी। हालांकि यह अलग बात है कि न ही राव और न ही यूपीए की दोनों सरकारों में ऐसी कोई कोशिश की गई।

मंदिर आंदोलन के दो सबसे प्रमुख केंद्र रहे उत्तर प्रदेश और बिहार में कांग्रेस की राजनीतिक जमीन ध्वस्त होने की सबसे बड़ी वजह यही मुद्दा था। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने कांग्रेस को मंदिर मुद्दे पर अपना सियासी विमर्श बदलने का मौका दिया तो पार्टी ने घंटे भर के भीतर ही राव सरकार के 1992 के दुबारा मस्जिद बनाने के ऐलान पर चादर ओढ़ाते हुए राम मंदिर निर्माण की हिमायत का एलान कर दिया। बीते पांच साल से नरम हिन्दुत्व का संकेत दे रही कांग्रेस की राजनीतिक विमर्श को बदलने की बेचैनी इसी से समझी जा सकती है कि जहां बाकी विपक्षी पार्टियों ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सम्मान कर अपील की है। वहीं कांग्रेस ने इसे आगे जाकर यह कहने से गुरेज नहीं किया अब अदालत के फैसले के बाद भगवान श्रीराम का मंदिर बनना चाहिए।

हिन्दी पट्टी के राज्यों में अयोध्या मसले की संवेदनशीलता का तकाजा ही है कि इस पर संघ-भाजपा के खिलाफ सीधे मोर्चा लेने वाले मुलायम सिंह यादव की पार्टी सपा हो या बिहार में लालू प्रसाद की राजद दोनों दलों ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सम्मान करने की घोषणा करने में देर नहीं लगाई। दिलचस्प यह है कि मुलायम और लालू की जगह इन दोनों के सियासी उत्तराधिकारी पुत्रों ने खुद इसका एलान किया। अखिलेश यादव ने अपने बयान में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को सबके लिए बाध्यकारी बताते हुए उम्मीद जताई कि इससे देश में कानून का शासन और प्रजातंत्र सुदृढ़ होगा। सपा का यह रुख नब्बे के दशक के उसके सियासी नैरेटिव से बिल्कुल जुदा है। बसपा सुप्रीमो मायावती ने संविधान का हवाला देते हुए फैसले का सम्मान करने की बात कही है।

जबकि तेजस्वी यादव ने फैसले का सम्मान की अपील के साथ यह उम्मीद जताई है कि अब सभी राजनीतिक दल जनसरोकारों से जुड़े मुद्दों पर ध्यान देंगे। लालकृष्ण आडवाणी को मंदिर आंदोलन में गिरफ्तार करने वाले लालू प्रसाद की पार्टी का यह रुख भविष्य की सियासी चुनौतियों के हिसाब से विमर्श में बदलाव का कुछ ऐसा ही संकेत दे रहा है। शरद पवार की एनसीपी भी इससे अलग नहीं दिख रही। तृणमूल कांग्रेस संसद में संख्या बल के हिसाब से विपक्षी की तीसरी सबसे बड़ी पार्टी है। मगर अभी तक ममता बनर्जी या टीएमसी की ओर से फैसले पर कोई बयान नहीं आया है।

पश्चिम बंगाल के अगले चुनाव में भाजपा की गंभीर चुनौती का सामना कर रही टीएमसी की यह चुप्पी जाहिर करती है कि अपनी सियासत के नफा-नुकसान का आकलन करने तक पार्टी पत्ते नहीं खोलना चाहती। जहां तक दक्षिण के राज्यों की बड़ी पार्टियों द्रमुक, टीआरएस, जेडीएस का सवाल है तो वहां की सियासत में अयोध्या का मुद्दा कभी प्रभावी नहीं रहा और इसीलिए इनकी चुनौती भी वैसी नहीं जैसी हिंदी पट्टी के दलों की है।

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