बाॅलीवुड। फिल्म इंडस्ट्री की तरफ से आए दिन धमाकेदार फिल्मों के रीलीज होने की खबरें चलती रहती हैं। इन फिल्मों में काॅमेडी, एक्शन के साथ कोई-कोई फिल्म में हाॅरर भी होती है। जिसेे दर्शकों द्वारा खूब पसंद किया जाता है। ऐसी एक फिल्म का दर्शकों को बहुत दिनों से इंतजार था। जो अब पूरा हो चुका है। क्योंकि जिस फिल्म की हम बात कर रहे है उसका नाम दुर्गामती है। अमेजन प्राइम वीडियो पर आई दुर्गामती भी इस मामले में कमजोर साबित हुई। यह तमिल-तेलुगु फिल्म भागमती (2018) का हिंदी रीमेक है। दुर्गामती को देखने के लिए मजबूत दिल चाहिए। ढीली, बिखरी कहानी और तमाम किरदारों को जरूरत से ज्यादा सरल बना देने वाली यह फिल्म अंत आने से पहले ही निराश करने लगती है। फिल्म में दुर्गामती गुजरे जमाने की एक रानी है, जिसका प्रेत आज भी गांव की पुरानी हवेली/महल में रह रहा है। लेखक-निर्देशक जी. अशोक ने यहां दुर्गामती के बहाने आज के राजनीतिक भ्रष्टाचार की कहानी दिखाने की कोशिश की है।
कमजोर फिल्म रही दुर्गामती-
बता दें कि लेखक-निर्देशक का विश्वास है कि आज के जमाने में इंसान ने इंसान पर भरोसा करना छोड़ दिया है इसलिए एक राजनेता के भ्रष्टाचार का भंडाफोड़ करने के लिए ईश्वर और भूत-प्रेत को लाने की जरूरत पड़ी। वह यहां घटनाओं को साइंस की सीमा से बाहर और तंत्र-मंत्र की परिधि में ले गए हैं। दुर्गामती जैसे-जैसे आगे बढ़ती है, इसमें तर्क की गुंजायश पीछे छूटती जाती है। यह हॉरर और थ्रिलर के दायरे से बाहर निकलकर कमजोर फिल्म में बदलती जाती है। भूमि पेडनेकर को आईएएस अफसर से लेकर विखंडित व्यक्तित्व की शिकार दिखाने से ही लेखक-निर्देशक का मन नहीं भरा। तब दुर्गामती बन जाने वाली भूमि का इलाज करने आए मनोचिकित्सक से उसकी स्थिति के बारे में ‘काकोरहाफियोफोबिया’ जैसा शब्द कहलाया गया, जिसका मतलब बताया गया है नाकामी या पराजय का डर। फिल्म की पटकथा में न प्रवाह है और न प्रभाव। उन्होंने राजनेता, आईएएस अफसर, सीबीआई, अमेरिका रिटर्न सोशल एक्टिविस्ट, गांवों का जल संकट, बांध प्रोजेक्ट, कारपोरेट, मंदिरों से देवी-देवताओं की प्राचीन मूर्तियां चोरी होना, पुराना महल, जेल में क्लाइमेक्स से लेकर तमाम चालू नुस्खे आजमाए हैं।
भूमि का रोल रंगमंच के सैट जैसे दृश्यों में बिखर गया-
दुर्गामती के हॉरर के बीच कहानी में राजनीति का लचर ट्रेक है। फिल्म पहले आईएएस चंचल चौहान (भूमि पेडनेकर) की तरफ झुकी रहती है और फिर ईश्वर प्रसाद की तरफ झुक जाती है। मजबूत किरदार वाला यह नेता अंत आते-आते इस संवाद के साथ सबकी नजरों से गिर जाता है कि मैं अपनी आगे की जिंदगी पार्टियां बदल-बदल कर नहीं लड़कियां बदल-बदल कर जीना चाहता हूं। लेखक-निर्देशक पूरी फिल्म में यह स्पष्ट नहीं कर पाते कि वह इस जमाने में साइंस के तरक्की के साथ हैं या तंत्र-मंत्र के साथ। इसी तरह न यह साफ हो पाता है कि फिल्म डराने के लिए रची गई कहानी है या एक राजनेता की पोल खोलने के लिए रचा गया ड्रामा। निर्देशक ने हॉरर के नाम पर जरूरत से ज्यादा ड्रामा रचा है और भूमि का अधिकतर रोल रंगमंच के सैट जैसे दृश्यों में बिखर गया।