निर्मल उप्रेती, संवाददाता, अल्मोड़ा
जलवायु परिवर्तन के हिमालयी भू-भाग पर पड़ने वाला प्रभाव अधिक चिंताओं का विषय है। और वैज्ञानिक इसपर लगातार अनुसंधान कर रहे हैं। ये बात विश्व पर्यावरण दिवस के अवसर पर गोविंद बल्लभ पंत राष्ट्रीय हिमालयी पर्यावरण संस्थान के प्रभारी निदेशक किरीट कुमार ने बताई।
‘अनेक अनुसंधान कार्य जारी है’
उन्होंने कहा कि भारत सरकार पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के मार्ग निर्देशन में हिमालयी भू-भाग में ग्लेश्यिरों, नदियों, खेती और वनों आदि की पारिस्थितिकी प्रणाली में जलवायु परिवर्तन के विविध प्रभावों पर अनेक अनुसंधान कार्य जारी है। उन्होंने बताया कि इस वर्ष संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा पर्यावरण दिवस को ‘परिस्थितिकीय तंत्रों के उद्धार’ विषय पर केंद्रित किया है।
‘समाजोन्मुखी अनुसंधान कार्य किए जा रहे’
उन्होने आगे कहा कि हमें जल, थल, मरूस्थल, घास के मैदानों, नदियों, झीलों आदि की अपनी पारिस्थितिकी की समझ को विकसित कर उनके संरक्षण के प्रयासों को आगे बढ़ाना है। हमें इन क्षेत्रों में मानवीय हस्तक्षेपों के कारण आए। नकारात्मक प्रभावों की भरपाई के प्रयास करने है। उन्होंने कहा कि संस्थान राष्ट्रीय हिमालयी अध्ययन मिशन के तहत विभिन्न राज्यों में अनेक शोध संस्थानों द्वारा एकल और साझा अनुसंधान कार्यों के द्वारा इन विषयों पर समाजोन्मुखी अनुसंधान कार्य किए जा रहे हैं।
‘संरक्षण के प्रयासों को आगे बढ़ाने की आवश्यकता’
उन्होंने कहा कि हिमालयी पारिस्थितिकी पर समझ विकसित करते हुए इसके संरक्षण के प्रयासों को आगे बढ़ाने की आवश्यकता है। विभिन्न ग्लेश्यरों के पिघलने की दरों के आकड़ों को सरकार से लगातार साझा किया जा रहा है। इसमें उपग्रह आधारित अध्ययन सम्मलित है। ग्लेश्यिरों से पिघलने से हिमालयी क्षेत्रों में बनने वाली झीलें अधिक चिंता का विषय है। जिसे वैज्ञानिकों द्वारा प्रथमिकता दी है।
वहीं भू-स्लखन आदि समस्याओं के शमन हेतु पूर्व सूचना प्रणाली को भी विकसित करने के तकनीकी अनुसंधान कार्य जारी है। जिसमें अनुसंधानकर्ता इस प्रयास में लगे हैं कि प्राकृतिक हलचलों को कैसे ससमय पूर्व में सेंसरों के द्वारा पूर्व में ज्ञात कर लिया जाए।
‘पद्धतियां बदलने से खेती-जल स्रोत प्रभावित’
मौसम में आ रहे परिवर्तनों पर उन्होंने बताया कि यद्पि अध्ययन बताते हैं, कि वर्षा के मात्रा में कमी नहीं आयी है अपितु वर्षा की पद्धतियां बदलने से खेती व जल स्रोत प्रभावित हो रहे हैं। जल पारिस्थितिकी पर बोलते हुए उन्होंने कहा कि नदियों के जलस्तर में चिताजनक परिवर्तन नहीं दिखे हैं अपितु जल स्तर अवश्य प्रभावित हो रहा है। उन्होंने बताया कि जलस्रोतों के संरक्षण के साथ जल अभ्यारण्य की अवधारणा पर कार्य करते हुए हिमालयी भू-भाग में जलस्रोतों के संरक्षण की ठोस कार्य योजना पर कार्य किया जा रहा है।
‘विभिन्न स्तरों पर प्रयास किए जा रहे’
वन पारिस्थिति की पर चिंता जताते हुए उन्होंने कहा कि वन्य जीवों की समस्या वन पारिस्थितिकी के बिगड़ने का परिणाम है जिसके समाधान के लिए आज विभिन्न स्तरों पर प्रयास किए जा रहे हैं। उन्होने वनाग्नि के लिए चीड़ पत्ती से बिजली, ईंधन, कागज और जैव ईंधन जैसे अनुसंधानों को वृहद रूप देने की वकालत की।
मोटे अनाज ही मानव समाज के लिए हितकर
भू-पारिस्थितिकी पर बालते हुए उन्होंने खेती की चिंताओं पर कहा कि विभिन्न अनुसंधानों से स्पष्ट है कि मोटे अनाज व स्थानीय अनाज, दालें और अन्य उत्पाद ही मानव समाज के लिए हितकर है। उन्होंने कहा कि विभिन्न अनुसंधानों के द्वारा स्थानीय अनाजों व उत्पादों के जीन को संरक्षित करने का कार्य वैज्ञानिकों द्वारा किया जा रहा है।
जागरूकता अभियान संचालित किए गए
साथ ही मोटे और स्थानीय अनाजों के चलन को बढ़ाने के लिए जागरूकता अभियान संचालित किए गए हैं। क्योंकि मोटे अनाज जो पानी की कमी अथवा अधिकता से कम प्रभावित होते हैं और अधिक पोषक होने के साथ रोगों के लड़ने की क्षमता रखते हैं। इं कुमार ने बताया कि वैज्ञानिकों का मानना है कि जलवायु परिवर्तन के आने वाले समय में हिमालयी संवेदनशील पारिस्थितिकी को अधिक प्रभावित करेंगे। इसके चरम प्रभाव इस भू-भाग में प्रकट भी हो रहे है। सरकार और समाज को इसके लिए सजग रहने की आवश्यकता है।
समाज एक दशक से अधिक सामना कर रहा
उन्होंने कहा कि बादलों का फटना, भूस्खलन, तापमान में बढ़ोत्तरी, खेती के प्रभावित होने, उच्च हिमालयी क्षेत्रों में हिमनदों के टूटने, व अप्रत्याशित वनाग्नि, जल संकट आदि समस्याओं का हिमालयी समाज एक दशक से अधिक सामना कर रहा है। उन्होंने इसके लिए ठोस आपदा प्रबंधन प्रणाली, सतत् नगरीय नियोजन व निर्माण, सतत् कृषि व वन प्रबंधन,विकास और निर्माण को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से समझने की आवश्यकता पर बल दिया