कल फांसी का दिन मुकर्रर हुआ और आज भगत सिंह अपने साथियों को खत लिख रहे थे।
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सोचिए जब मौत सामने खड़ी हो तो ऐसे में कोई बहादुर ही मुस्कुरा सकता है। कोई मतवाला ही आजादी का परचम लेकर मुस्कुराते हुए मातृभूमि पर खुद को न्योछावर कर पाएगा। ऐसा जज्बा रखने वाले शहीद-ए-आजम भगत सिंह है।
तो आइए जानें कि उन्होंने अपनी शहादत से ठीक कुछ घंटे पहले ऐसा क्या लिखा जो इंकलाब की आवाज बन गया। जानिए उस उर्दू खत में क्या लिखा था।
जाहिर-सी बात है कि जीने की इच्छा मुझमें भी होनी चाहिए, मैं इसे छिपाना भी नहीं चाहता। आज एक शर्त पर जिंदा रह सकता हूं। अब मैं कैद होकर या पाबंद होकर जीना नहीं चाहता। मेरा नाम हिन्दुस्तानी क्रांति का प्रतीक बन चुका है। क्रांतिकारी दल के आदर्शों और कुर्बानियों ने मुझे बहुत ऊंचा उठा दिया है। इतना ऊंचा कि जीवित रहने की स्थिति में इससे ऊंचा मैं हरगिज नहीं हो सकता।
आज मेरी कमजोरियां जनता के सामने नहीं हैं। यदि मैं फांसी से बच गया तो वे जाहिर हो जाएंगी और क्रांति का प्रतीक चिह्न मद्धम पड़ जाएगा, हो सकता है मिट ही जाए। लेकिन दिलेराना ढंग से हंसते-हंसते मेरे फांसी चढ़ने की सूरत में हिन्दुस्तानी माताएं अपने बच्चों के भगत सिंह बनने की आरजू किया करेंगी और देश की आजादी के लिए कुर्बानी देने वालों की तादाद इतनी बढ़ जाएगी कि क्रांति को रोकना साम्राज्यवाद या तमाम शैतानी शक्तियों के बूते की बात नहीं रहेगी।
हां, एक विचार आज भी मेरे मन में आता है कि देश और मानवता के लिए जो कुछ करने की हसरतें मेरे दिल में थीं, उनका 1000वां भाग भी पूरा नहीं कर सका अगर स्वतंत्र, जिंदा रह सकता तब शायद उन्हें पूरा करने का अवसर मिलता और मैं अपनी हसरतें पूरी कर सकता। इसके अलावा मेरे मन में कभी कोई लालच फांसी से बचे रहने का नहीं आया। मुझसे अधिक भाग्यशाली कौन होगा, आजकल मुझे स्वयं पर बहुत गर्व है। मुझे अब पूरी बेताबी से अंतिम परीक्षा का इंतजार है, कामना है कि ये और जल्दी आ जाए।
राजगुरु और सुखदेव को भी हुई थी फांसी
गौरतलब है कि भगत सिंह के साथ उनके साथियों राजगुरु और सुखदेव ने भी हंसते- हंसते फांसी के फंदे को आगे बढ़कर चूम लिया था। जिस दिन उन्हें फांसी दी गई थी उस दिन वो मुस्कुरा रहे थे। मौत से पहले तीनों देशभक्तों ने गले लगकर आजादी का सपना देखा था। ये वो दिन था जब लाहौर जेल में बंद सभी कैदियों की आंखें नम हो गईं थीं। यहां तक कि जेल के कर्मचारी और अधिकारियों के भी फांसी देने में हाथ कांप रहे थे। फांसी से पहले तीनों को नहलाया गया। फिर इन्हें नए कपड़े पहनाकर जल्लाद के सामने लाया गया। यहां उनका वजन लिया गया। मजे की बात ये कि फांसी की सजा के ऐलान के बाद भगत सिंह का वजन बढ़ गया था।
23 साल की उम्र में हुई थी फांसी
भगत सिंह सिर्फ 23 साल के थे जब 1931 में उनको फांसी हुई थी। आपको बता दें कि भगत सिंह के आदर्शों और बलिदान ने उन्हें जन नायक और कई लोगों की प्रेरणा बना दिया।
28 सितंबर 1907 में हुआ जन्म
भगत सिंह का जन्म 28 सितंबर 1907 में हुआ और 23 मार्च 1931 को भगत सिंह हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर झूल गये। उनमें अलग का साहस था। जिसने अंग्रेजी हुकूमत को झकझोर देने का काम किया। वो कहते थे, “राख का हर एक कण, मेरी गर्मी से गतिमान है। मैं एक ऐसा पागल हूं, जो जेल में भी आजाद है।
आपको बता दें कि भगत सिंह का जन्म पाकिस्तान के एक सिख परिवार में हुआ था। भगत सिंह के जन्म के समय उनके पिता किशन सिंह जेल में थे। वहीं उनके चाचा अजीत सिंह भी अंग्रेजी सरकार का मुकाबला कर रहे थे।
आजाद हिंद फौज की स्थापना
भगत सिंह के चाचा पर अंग्रेजो ने 22 केस दर्ज किए थे। और इसकी वजह से उनको ईरान जाकर रहना पड़ा। वहां जाकर उन्होंने आजाद हिंद फौज की स्थापना की और क्रांति की जोत जलायी।
प्राणनाथ मेहता ने दी जेल में किताब
भगत सिंह किताबें पढ़ने का काफी शौक रखते थे। उन्होंने अपने आखिरी समय में ‘रिवॉल्युशनरी लेनिन’ नाम की एक किताब मंगवाई थी। कहा जाता है कि उनके वकील प्राणनाथ मेहता जेल में उनसे मिलने पहुंचे। और उस दौरान उन्होंने भगत सिंह को वो किताब दी।
सिर्फ दो संदेश है साम्राज्यवाद मुर्दाबाद और ‘इंकलाब जिदाबाद
इसके बाद मेहता ने पूछा आप देश को क्या संदेश देना चाहेंगे तब भगत सिंह ने कहा, ”सिर्फ दो संदेश है साम्राज्यवाद मुर्दाबाद और ‘इंकलाब जिंदाबाद।” थोड़ी देर बाद भगत सिंह समेत राजगुरु और सुखदेव को फांसी देने के लिए जेल की कोठरी से बाहर लाया गया, और मां भारती को प्रणाम करते हे फांसी के फंदे को गले लगा लिया ।
13 अप्रैल 1919 को बैसाखी वाले दिन रौलट एक्ट के विरोध में देशवासियों की जलियांवाला बाग में एक सभा रखी गयी। इस बात से अंग्रेजी सरकार नाराज हो गयी और जनरल डायर ने आदेश दिया और अंग्रेजी सैनिकों ने ताबड़बतोड़ गोलियों की बारिश कर दी। 12 साल के भगत सिंह पर इस सामुहिक हत्याकांड का गहरा असर पड़ा।
नौजवान भारत सभा’ की स्थापना
उन्होंने जलियांवाला बाग के रक्त रंजित धरती की कसम खाई कि अंग्रेजी सरकार के खिलाफ वो जरुर खड़े होगें, और उन्होंने लाहौर नेशनल कॉलेज की पढ़ाई छोड़कर ‘नौजवान भारत सभा’ की स्थापना की।