संस्कृति,धर्म ,संस्कार के संगम प्रयागराज मे भारत के खेलो की गंगा को अवतरित करने वाले भगीरथ ध्यान सिंह् का जन्म 29 अगस्त 1905 को सोमेश्वर दत्त सिंह के घर हुआ।
पिता सेना मे थे परिवार बडा था| पिता को कम वेतन मिलता था घर का संचालन कठिन होता था| घर की आर्थिक स्थिति खराब थी और इसलिये 14 वर्ष की छोटी सी आयु मे ध्यान सिंह् बाल सैनिक spice के रूप मे सेना मे 1st ब्राहमण रेजिमेंट मे भर्ती हो गये।
यहा ध्यान सिंह् सैनिक छाव नी में विभिन्न खेलो के अभ्यास को करने लगे तब ही ध्यानचंद पर सूबेदार बाले तिवारी की नजर पडी और उन्होंने ध्यान सिंह् को हाकी खेल को खेलने के लिये कहा और फिर वे ध्यान सिंह को हाकी की बारीकियों को सिखाते और बताते और समझाते की ध्यान *हाँकी टीम गेम है अकेले नही खेला जाता सबको साथ लेकर खेला जाता है आगे चलकर बस यही मन्त्र ध्यान सिंह के जीवन का मूल मंत्र हो गया।ध्यान सिंह दोह्पर मे जब सब सैनिक अपनी बैरिको मे आराम कर रहे होते तब ध्यान सिंह तपती धुप मे नगे पैर हाकी का अकेले ही अभ्यास करते और दिन तो क्या वे रात मे चांद की रोशनी मे भी अभयास करते। मेहनत और लगन शीलता को देख उनके कोच बाले तिवारी ने कहा ध्यान सिंह तुम अपनी मेहनत और लगन शीलता के कारण पूरी दुनिया मे हाकी के मैदान पर चांद की रोशनी भांती रोशनी बिखेरोगे और बस यही पल था जब आसमां के चांद का धरती पर उदय हुआ और ध्यान सिंह् ध्यानचंद कहलाने लगे।
अन्तर सैन्य हाकी प्रतियोगीता मे ध्यान सिंह् ने जबर्दस्त खेल का प्रदर्शन किया और उनकी इस खेल प्रतिभा को देख एक दिन जब वे अपनी सैन्य छा वनी मे अभ्यास कर रहे थे तब ही उनके कम्पनी कमाण्डर ने जोर से आवाज लगाई ध्यानचंद । ध्यानचंद दौडते हुये कमाण्डर के पास पहुचकर चटक सैन्य सैल्युट करते हुये कहते है यस सर ध्यानचंद तुम्हरा सिलेक्शन न्यू जीलैंड जाने वाली भारतीय सेना हाकी टीम के लिये हुआ है और तुमको न्यूजीलैण्ड हाकी खेलने जाना होगा यस सर कहते फिर चटक सैल्युट देते हुए खरगोश की भांति खुशी से उछल्ते हुये यह समाचार अपने मित्र साथियो को सुनाने अपनी बैरिक की और दौड पड़ें।
1926 मे भारतीय हाकी टीम ने न्यूजीलैंड हाकी संघ के आमंत्रण को स्वीकार करते हुये अपना प्रथम अन्तर्राष्ट्रिय दौरा 14 मई 1926 को वाइपा एकादश के विरुद्ध खेलकर शुरु किया इस मैच मे भारतीय हाकी टीम ने 11 के मुकाबले 0 गोल से वाईपा एकादश को पराजित किया और ध्यान चद की स्टिक से भारत के लिये पहला अन्तर्राष्ट्रिय गोल निकला जहा से भारतीय खेलो की गंगा का धरती पर अवतरण हुआ।भारत ने कुल 21 मैच खेले और 192 गोल किये जिसमे 80 गोल अकेले ध्यान चद की स्टिक से निकले।
इस सफलतम दौरे के बाद नवगठित भारतीय हाकी संघ को लगा की ध्यानचंद जैसा खिलाडी देश के पास है तो क्यो न हम अपनी उपस्थिति ओलंपिक मे दर्ज करे और उसने फिर 1928 मे एम्स्टर्डम ओलंपिक मे भारतीय हाकी टीम को भेजने का निर्णय लिया और भारतीय हाकी टीम समुद्री मार्ग से ओलंपिक मे हिस्सा लेने बम्बई से कैसर ए हिन्द जहाज से इंग्लैंड पहुची।
भारतीय हाकी टीम ने इंग्लैंड का दौरा किया शुरु किया जहां भारतीय हाकी टीम ने ध्यान चद के खेल कौशल की बदौलत इंग्लैंड की घरेलू टीमों को बुरी तरह से रौद डाला यह देख इंग्लैंड ने इस भय से ओलंपिक हाकी से अपना नाम वापस ले लिया की कही एसा न हो जाये की हम गुलाम भारत से ओलंपिक मे पराजित हो जाये और दुनिया मे कही भी सुर्य के अस्त न होने वाले हमारे साम्राज्य का सुर्य ध्यानचंद ओलंपिक हाकी मे हाकी के मैदान पर अस्त न कर दे और यही वह इंग्लैंड का दौरा जब इंग्लैंड की प्रैस ने ध्यानचंद को हाकी विजार्ड की उपाधि देकर सम्बोधित किया।
1928 एम्स्टर्डम ओलंपिक मे भारतीय हाकी टीम ने 26 मई 1928 को फाइनल मैच मेजबान होलैंड के खिलाफ खेला जहा तेज बुखार मे भी खेलते हुए ध्यानचंद के शानदार दो गोलो की बदौलत भारत ने हालैंड को 3 के मुकाबले 0 गोलो से पराजित करते हुये प्रथम ओलंपिक स्वर्ण पदक भारत की झोली मे डाल दिया यही वह पहला ओलंपिक है जिससे भारत ने अपने स्वर्णिम हाकी युग की ओलम्पिक खेलो मे शुरुआत की।
1932 मेअमेरिका के शहर लॉस एंजेल्स मे ओलंपिक खेलो का आयोजन हुआ जिसमे भाग लेने भारतीय हाकी टीम समुद्र के रास्ते जापान होते हुए लॉस एंजेल्स के लिये रवाना हुई जहा जापान के समुद्री तट कोबे पर निर्वासन मे रह रहे भारत के महान क्रन्तिकारी रास बिहारी बोस से ध्यानचंद की मुलाकात होती हैऔर फिर भारत की टीम लॉस एंजेल्स ओलंपिक मे भाग लेने पहुचती है जहा वह अपना पहला मुकाबला जापान के खिलाफ खेलती है और 11_0 से इस मैच मे अपनी जीत दर्ज करती है राउंड रॉबिन मुकाबले का अन्तिम मैच भारतीय हाकी टीम मेजबान अमेरिका के खिलाफ खेलती है और 24 के मुकाबले 1 गोल का ओलंपिक कीर्तिमान बनाते हुये भारत को ओलंपिक हाकी का दूसरा स्वर्ण पदक विजेता बनने का गौरव दिलाती है।ध्यान चद और भाई रूप सिंह की खेल मैदान पर जुगलबंदी ने पूरी दुनिया को सम्मोहि त कर दिया।24 गोल करने का ओलम्पिक रिकार्ड आज भी अजेय भारतीयो के ।गौरव शाली अतीत की याद ताजा किये हुये है।
सन 1935 मे भारतीय हाकी टीम ने एक बार फिर ऑस्ट्रेलिया न्यूजीलैंड का दौरा किया इस दौरे मे ध्यानचंद ने अकेले 48 मैचों मे गोलो का दोहरा शतक लगाते हुए कुल 201 गोल किये और जब उनकी मुलाकात दुनिया के महानतंम क्रिकेटर डान ब्रैडमैन से हूई तो ब्रैडमैन ने कहा ध्यानचंद तुम हाकी मे एसे गोल करते हो जैसे हम क्रिकेट मे रन बनाते है।
1936 के एतेहसिक बर्लिन ओलंपिक खेलो का आयोजन होना था टीम भेजने के लिये धन की कमी थी तब भारत के अलग अलग रियासतों ,रजवाड़ों ने भारतीय हाकी टीम को ओलम्पिक मे भेजने के लिये धन एकत्रित किया और यहा तक की ध्यानचंद के हाकी क्लब हीरोज क्लब झांसी ने भी 960 रुपये का अपना भी योगदान टीम को ओलम्पिक मे भेजने के लिये दिया । भारतीय हाकी टीम ने ध्यानचंद की कप्तानी मे फाइनल मैच मे मेजबान जर्मनी के तानाशाह हिटलर की उपस्तिथि के होते ध्यानचंद ने अपनी जादू भरी हाकी कला की दम पर भारतीय हाकी टीम वन्देमातरम गान और तिरंगे की कसम खाकर मैदान मे खेलने उतरी और उसने फाइनल हाकी मैच मे 8 के मुकाबले 1 गोल से जर्मनी को परास्त करते हुये भारत मा को एक बार फिर से स्वर्ण पदक से सम्मानित कर दिया ओलम्पिक खेलो मे लगातार भारत को तीसरा सवर्ण पदक जीतकर ध्यानचंद ने देश का नाम दुनिया मे रौशन कर दिया ।गुलामी के उस दौर मे 15 अगस्त को मिली इस विजय से भारत वासियों को आजादी के 11 वर्ष पूर्व ही आजादी का एह्सास करा दिया और जब हिटलर ने ध्यानचंद से जर्मनी आकर खेलने और बडे सैन्य पद को देने का आग्रह किया तब ध्यानचंद ने विन्र मता से यह कहते हुये हिटलर का प्रस्ताव को मानने से इन्कार कर दिया की मै अपने देश मे खुश हूँ और मेरी सेवाए मेरे देश के लिये है।
1948 लन्दन ओलम्पिक के ठीक पहले अपने नौजवान हाकी खिलाडियो के साथ ईस्ट अफ्रीका का दौरा किया जहा से निमन्त्रण पत्र मिलते समय अफ्रीकन हाकी संघ ने लिखा ध्यानचंद टीम मे आ रहे हो तो टीम भेजिए अन्यथा नही और फिर ध्यानचंद ने लन्दन ओलम्पिक से ठीक पहले कोलकाता से अपने अन्तर्राष्ट्रिय हाकी से सन्यास की घोषणा कर दी।
काश 1940 और 1944 के दो ओलम्पिक और आयोजित होते तो भारत के पास दो और हाकी के स्वर्ण पदक होते और ध्यानचंद के सीने पर तीन नही पाँच स्वर्ण पदक शोभा दे रहे होते।
1956 मे भारत सरकार ने हाकी के जादूगर ध्यानचंद को पदम भूषण से सम्मानित किया।
ध्यानचंद भारतीय हाकी के बारे मे क्या कहते है _(कृपया नीचे वीडियो मे मेजर ध्यानचंद का इंटरव्यू सुनिये)
साल 1979 मे ध्यानचंद कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी से संघर्ष करते हुए आज के ही दिन 3 दिसम्बर 1979 को एम्स के जनरल वार्ड मे ने अन्तिम सांस लेते हुये दुनिया और हम सबको अलविदा कह देते है। हाकी के जादूगर ध्यानचंद का अन्तिम संस्कार पूरे सैन्य सम्मान के साथ हीरोज हाकी मैदान पर किया गया जहा उन्होने अपनी हाकी को निखारा सीखा और खेला था और वे अपनी स्वर्णिम विरासत को हमे सौपते हुये यही पंक्ति गुनगानते सन्देश दे गये जीना यहा मरना यहा इसके सिवा जाना कहा आवाज दो हम थे |