प्रयागराजः ख़ुसरोबाग़ मुग़ल वास्तुकला कला का एक ऐसा जीता-जागता उदाहरण है जो गंगा-जमुनी तहजीब की कहानी बयां करता है। ऊंची दीवारों से घिरा हुआ बाग़ प्रचुर अलंकरण के साथ विषय के गंभीर भाव पर भी गहरी छाप छोड़ता है। चारों तरफ से बंद बलुआ पत्थर से निर्मित मक़बरे की दीवारों की बारीक नक्काशी काबिलेतारीफ है।
यहां 17वीं शताब्दी में निर्मित तीन मुगलों की आरामगाह यानि मक़बरा हैं। जिनमें पहला मकबरा जहांगीर के सबसे बड़े पुत्र राजकुमार ख़ुसरो का है, दूसरा ख़ुसरो की मां शाह बेग़म का और तीसरा जहांगीर की बहन निथार बेग़म का है।
कहा जाता है इन मकबरों का निर्माण जहांगीर ने अपने सबसे उम्दा कलाकारों से करवाया था। जहांगीर के समय को मुग़ल की चित्रकला का स्वर्णिम युग कहा जाता है, क्योंकि जहांगीर खुद चित्रकला के बहुत बड़े जानकर थे। जहांगीर अपनी आत्मकथा ‘तुजुक-ए-जहांगीरी’ में लिखते हैं की “कोई भी चित्र चाहे वह किसी मृत व्यक्ति या जीवित व्यक्ति द्वारा बनाया गया हो, मैं देखते ही तुरन्त बता सकता हूं कि यह किस चित्रकार की कृति है। यदि किसी चेहरे पर आंख किसी एक चित्रकार ने भौंह किसी और ने बनाई हो तो भी मैं जान लेता हूँ कि आंख किसने बनाई है और भौंह किसने बनाई है।
“याद है वो सारे वो ऐश-ओ-फराकत के मज़े
दिल अभी भूला नही आगाज़-ए-उल्फ़त के मज़े”
जहांगीर ने ये शेर ख़ुसरो और अपनी बीबी की याद में लिखे थे।