- अनीता जैन
फाल्गुन माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी ‘आमलकी एकादशी” या ‘रंगभरी एकादशी” के नाम से जानी जाती है। यह एकादशी इस साल 17 मार्च रविवार को मनाई जाएगी। आमलकी का अर्थ होता है ‘आंवला”, इस एकादशी का महत्व अक्षय नवमी के समान है। श्री विष्णु ने जनकल्याण के लिए अपने शरीर से पुरुषोत्तम मास की एकादशियों सहित कुल 26 एकादशियों को उत्पन्ना किया।
गीता में भी परमेश्वर श्री कृष्ण ने इस तिथि को अपने ही समान बलशाली बताया है। पद्म पुराण के अनुसार भगवान श्री कृष्ण ने युधिष्ठिर को एकादशी तिथि का महत्व समझाते हुए कहा है कि – ‘जैसे नागों में शेषनाग,पक्षियों में गरुड़,देवताओं में श्री विष्णु तथा मनुष्यों में ब्राह्मण श्रेष्ठ हैं,उसी प्रकार सम्पूर्ण व्रतों में एकादशी व्रत श्रेष्ठ है।” सभी एकादशियों में नारायण के समान ही फल देने का सामर्थ्य है।
इनकी पूजा-आराधना करने वाले को किसी और पूजा की आवश्यकता नहीं पड़ती क्योंकि ये अपने भक्तों के सभी मनोरथों की पूर्ति कर उन्हें विष्णुलोक पहुंचाती हैं। एकादशी तिथि विष्णुप्रिया तो है ही, इसके अलावा इस एकादशी का महत्व इसलिए और भी बढ़ जाता है क्योंकि इस दिन ही भगवान शिव, माता पार्वती से विवाह के उपरांत पहली बार अपनी प्रिय काशी नगरी आए थे। पुराणों के अनुसार भगवान विष्णु ने कहा है – ‘कि जो प्राणी स्वर्ग और मोक्ष प्राप्ति की कामना रखते हैं,उनके लिए आमलकी एकादशी का व्रत अत्यंत श्रेष्ठ है।”
आंवला पूजन का रहस्य
आमलकी एकादशी के दिन आंवले के वृक्ष की पूजा का खास विधान है क्योंकि इसी दिन सृष्टि के आरंभ में आंवले के वृक्ष की उत्पत्ति हुई थी। पद्म पुराण के अनुसार भगवान विष्णु के मुख से चन्द्रमा के समान कांतिमान एक बिंदु पृथ्वी पर गिरा, उसी से आमलकी (आंवला) का दिव्य वृक्ष उत्पन्ना हुआ,जो सभी वृक्षों का आदिभूत कहलाता है।
भगवान विष्णु ने सृष्टि की रचना के लिए इसी समय अपनी नाभि से ब्रह्मा जी को उत्पन्ना किया। देवता, दानव, गन्धर्व, यक्ष, नाग तथा निर्मल अन्त:करण वाले महर्षियों को ब्रह्मा जी ने जन्म दिया। सभी देवताओं ने जब इस पवित्र वृक्ष को देखा तो उनको बड़ा विस्मय हुआ, इतने में आकाशवाणी हुई – ‘महर्षियो! यह सर्वश्रेष्ठ आमलकी का वृक्ष है जो विष्णु को अत्यंत प्रिय है।
इसके स्मरण मात्र से गोदान का फल मिलता है, स्पर्श करने से दोगुना और फल भक्षण करने से तिगुना फल प्राप्त होता है। इसके मूल में विष्णु, उसके ऊपर ब्रह्मा, तने में रूद्र, शाखाओं में मुनिगण, टहनियों में देवता, पत्तों में वसु, फूलों में मरुदगण एवं फलों में समस्त प्रजापति वास करते हैं।” अत: यह सब पापों को हरने वाला परम पूज्य वृक्ष है।
एकादशी के दिन साधक को प्रात: व्रत का संकल्प लेकर परशुराम जी की मूर्ति या तस्वीर की पूजा करें। साथ ही आंवले के वृक्ष का पूजन आदि करके ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ‘ मंत्र का उच्चारण करते हुए वृक्ष की परिक्रमा करें। अगर आसपास वृक्ष उपलब्ध नहीं हो तो आंवले का फल भगवान विष्णु को प्रसाद स्वरूप अर्पित करें। तत्पश्चात घी के दीपक या कपूर से श्री हरि की आरती उतारें,विष्णु सहस्त्रनाम का पाठ करें।
जो लोग व्रत नहीं करते है वह भी इस एकादशी के दिन भगवान विष्णु को आंवला अर्पित करें और स्वयं भी खाएं। शास्त्रों के अनुसार आमलकी एकादशी के दिन आंवले का सेवन भी पापों का नाश करता है। इस व्रत को करने से मनुष्य सब पापों से छूट जाता है और वह सहस्त्र गोदानों का फल प्राप्त कर लेता है। यह एकादशी समस्त यज्ञों को करने से भी अधिक फल देने वाली है।
पौराणिक मान्यता के अनुसार माता शक्ति के क्रोध से बचने के लिए महर्षि मेधा ने शरीर का त्याग कर दिया और उनका अंश पृथ्वी में समा गया। चावल और जौ के रूप में महर्षि मेधा उत्पन्ना हुए इसलिए चावल और जौ को जीव माना जाता है। जिस दिन महर्षि मेधा का अंश पृथ्वी में समाया, उस दिन एकादशी तिथि थी ।
अत:इनको जीव रूप मानते हुए एकादशी को भोजन के रूप में ग्रहण करने से परहेज किया गया है, ताकि सात्विक रूप से विष्णु प्रिया एकादशी का व्रत संपन्ना हो सके। जो लोग किसी कारण से एकादशी व्रत नहीं कर पाते हैं उन्हें श्री हरि एवं देवी लक्ष्मी की कृपा पाने के लिए एकादशी के दिन खानपान एवं व्यवहार में सात्विकता का पालन करना चाहिए।
इस दिन लहसुन,प्याज,मांस, मछली, अंडा नहीं खाएं और झूठ एवं किसी को अप्रिय वचन न बोलें, प्रभु का स्मरण करें। ज्योतिष मान्यता के अनुसार चावल में जल तत्व की मात्रा अधिक होती है। जल पर चन्द्रमा का प्रभाव अधिक पड़ता है। चावल खाने से शरीर में जल की मात्रा बढ़ती है इससे मन विचलित और चंचल होता है।
मन के चंचल होने से व्रत के नियमों का पालन करने में बाधा आती है। एकादशी व्रत में मन का पवित्र और सात्विक भाव का पालन अति आवश्यक होता है इसलिए एकादशी के दिन चावल से बनी चीजें खाना वर्जित कहा गया है।