नई दिल्ली। उत्तर प्रदेश में चुनावी समर का रण खुल चुका है । सारे महारथी अपना तीर कमान लेकर मैदान में जा डटे हैं। हर पार्टी अपने किले को मजबूत करने में जुटी है। चुनावी साल आते ही हर राजनीतिक पार्टी सत्ता के गलियारों में अपनी धमक दर्ज कराने के फिराक में रहती है। देश के सबसे बड़े दल के तौर पर 2014 के चुनाव में उभरी भारतीय जनता पार्टी के लिए यूपी का समर सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है। क्योंकि इस सूबे से केन्द्र की सत्ता का दरवाजा खुलता है।
पार्टी ने इसके लिए अपने तैयारियां साल भर पहले से ही शुरू कर दीं थी। रैलियां अभियानों के जरिए पार्टी जनता के बीच लगातार अपनी उपस्थिती दर्ज कराती रही है। लेकिन अब जब चुनावी समर का आगाज होना था तो पार्टी अपने सिपहसालारों के चयन को लेकर एक बार बड़े मजधार में फंस गई है। जिस रण को जीता मानकर पार्टी दम भर रही थी वो रण पार्टी के हाथ से निकलता जा रहा है।
बाहरियों के आने से घर वालों में हुआ असंतोष
सूबे में लगातार 2002 के बाद से बसपा और सपा की जुगलबंदी चल रही थी। जनता इनके कामों से आजिज आ चुकी थी। भ्रष्टाचार गुण्डाराज और जातिवाद के जनता अब अलग हटकर एक विकास वादी सौम्य सरकार को लाने के पक्ष में थी। लेकिन जैसे जैसे रण का मैदान सजता गया उसी के साथ भाजपा जनता से दूर होती गई।हांलाकि भाजपा ने जनता के बीच जाने के लिए और जनता को सत्ता की जंग से जोड़ने के लिए भाजपा के केन्द्रीय संगठन ने चुनावी कार्यक्रम तैयार कर जिलों और विधानसभाओं पर आयोजित करने का काम किया । इसके साथ ही प्रत्याशियों को जनता के बीच नाप-तौल कर उतारने के लिए सर्वे कराने का भी काम किया। लेकिन चुनावी सूची जारी करने के पहले लगातार भाजपा के खेमे में वो चेहरे आने लगे जो बिगत कई सालों से भाजपा के विरोधियों के खेमे में भाजपा की खिलाफत करते रहे थे। इनको पार्टी लगातार अपने खेमे में लाती रही । पार्टी को लग रहा था कि उसका ग्राफ बढ़ रहा है। विरोधियों का मुराल गिरता जा रहा है। लेकिन इन नये महारथियों के आगमन से पार्टी के कर्मठ कार्यकर्ताओं के बीच अपनी प्रत्याशिता को लेकर ओहा-पोह की स्थितियां बनती जा रही थी।
जातिगत समीकरणों को साधने में पार्टी से दूर हुए वोटर
सूबे का चुनावी रण जातिगत समीकरणों के साथ व्यक्तिगत समीकरणों पर टिका होता है। जिसको साध कर सपा और बसपा लगातार 2002 के बाद से सत्ता में आती रही हैं। वहीं भाजपा का ग्राफ 2002 के बाद से लगातार गिरता ही रहा है। भाजपा ने जातिगत गठजोड़ साधने के लिए यूपी चुनाव के प्रभारी ओम माथुर और प्रदेश के संगठन मंत्री सुनील बंसल के हाथों में कमान दे रखी थी। प्रदेश में पिछड़ा वर्ग को साधने के लिए सूबे की कमान केशव मौर्य के हाथों में सौंप दी थी। फिर शुरू हुआ जोड़-तोड़ का खेल जिस खेल में बसपा सपा और कांग्रेस के कई बड़े चेहरे और कई दागी और अपराधिक छबि के लोग भाजपा के रंग में रंग उठे। सत्ता की चाह में पार्टी ने सिद्धान्तों और नीतियों से समझौता करना शुरू कर दिया । इस नीतियों के चलते पार्टी का पराम्परागत वोटर और कार्यकर्ता अपने आपको ठगा महसूस करने लगा। जिसका परिणाम अब आने वाले चुनाव में पार्टी पर भारी पड़ने वाला है। वहीं जातिगत समीकरणों के आधार पर पार्टी ने जिस गणित को साधने की कोशिश की थी। वो गणित अब पार्टी के ऊपर भारी पड़ने लगी है।
पार्टी सिद्धान्तों से इतर हुए टिकटों के बंटवारे पर उठा सवालिया निशान
2014 में पार्टी की हुई करिश्माई जीत के दंभ में चल रही पार्टी ने कार्यकर्ताओं की सालों की मेहनत और निष्ठा को दरकिनार कर दिया। जो पार्टी लगातार विपक्ष पर परिवारवाद और भ्रष्टाचार के साथ सूबे में गुण्डाराज कायम करने का जिम्मेदार बताती थी। उन्ही पार्टियों से बागी बने चेहरों को अपने चुनावी रण का कर्णधार बना दिया। जिससे जनता के सामने भाजपा का सिद्धान्तवादी चेहरे का मुखौटा खुलकर सामने आ गया। पार्टी के वोटर से लेकर सपोर्टर तक पार्टी में टिकटों के बंटवारे से नाराज हैं। लोग दबी जुबान में पार्टी के प्रदेश संगठन के कर्णधारों पर इस टिकट बंटबारे में घोटाले का आरोप लगाने से नहीं चूक रहे हैं। लोगों का कहना है कि भाजपा को कोई नहीं हरा सकता लेकिन अगर कोई हराता है तो पार्टी की ये ही गलत नीतियां जिन लोगों ने सत्ता के मद में जनता को ठोकर मारी । उसी भ्रष्टाचार गुण्डाराज को खत्म करने वाली पार्टी ने फिर उन्ही को टिकट देकर सत्ता चाही है। लोग अब विकास के नाम पर नही अराजकता खत्म करने के नाम पर वोट देने की बात कह रहे हैं। जो कि अब भाजपा के साथ आये महारथियों के जरिए सम्भव होता नहीं दिख रहा है।
अजस्रपीयूष