लखनऊ। उत्तर प्रदेश में चुनाव की सुगबुगाहट होते ही चुनावी सरगमियां तेज हो गई है। एक तरफ दलितों और मुस्लिम लोगों को एक माला में पिरोने का खेल जारी है तो दूसरी तरफ ब्राह्मणों और यादवों का दिल जीतने के लिए जद्दोजहद जारी है। राजनीति के इस खेल में एक किताब आ गई है। वो किताब जिसे प्रदेश की जनता को लुभाने के लिए घरों और बस्तियों तक पार्टी के कार्यकर्ताओं द्वारा पहुंचाया जा रहा है।
पहले बसपा ने मुस्लिमों का सच्चा हितैषी कौन? फैसला आप पर नाम की किताब में कई महत्वपूर्ण संदेश दिए। इस किताब में मायावती ने तीन बिंदुओं पर जोर दिया। किताब के पहले ही पन्ने पर मायावती ने कहा है कि समय-समय पर बीजेपी की सरकार को गिराने का काम उनकी पार्टी ने ही किया है। साफ़ है उनका इशारा 1999 में एक वोट से अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार को लेकर है। तथ्यों के आधार पर मायावती ने यह साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी की सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव भाजपा के साथ मिले हुए है।
बसपा सुप्रीमो मायावती ने बुकलेट में साफ कहा कि कल्याण सिंह और साक्षी महाराज जैसे कट्टर छवि वाले नेताओं से हाथ किसने मिलाया? मुलायम सिंह यादव को निशना बनाकर मुस्लिम लोगों को केंद्रीत कर इस किताब में कहा गया कि मुलायम सिंह पहली बार 1967 में जनसंघ के सहयोग से ही विधानसभा में पहुंचे थे। 1977 में वे उस सरकार में शामिल थे जिसमें जनसंघ के लोग भी शामिल थे।
बसपा के बाद सपा की बारी
बसपा के बुकलेट जारी करने के बाद सपा ने बुकलेट पर राजनीति का खेल शुरू कर दिया है। सपा ने राज्य में किए गए अपने कामों का गुणगान करने के लिए जल्द ही परिवर्तन की आहट नाम की पुस्तक छपवाने वाली है। सूबे के मुखिया अखिलेश यादव के कामों का गुणगान करने वाली इस किताब में चुनिंदा भाषणों और प्रेस कांफ्रेंस का संकलन देखने को मिल सकता है।
पार्टी के सूत्रों का कहना है कि 200 पन्नों वाली इस किताब में 2012 चुनावों से पहले शुरू हुई क्रांति रथ यात्रा और विकास के कामों को शामिल कर जनता का रूझान अपनी ओर करने पर काम किया गया है। किताब का संकलन करने के बाद इसे कार्यकर्ताओं को दिया जाएगा ताकि इसका वितरण किया जा सकें।
किताबों के इस खेल में सबसे बड़ी बात ये है कि जिस जनता के लिए किताबों का संस्करण किया जाना है वो पढ़ना जानती भी या नहीं…उत्तर प्रदेश की आधिकारिक वेबसाइट पर नजर डालें तो पता चलता है कि राज्य में 79 फीसदी पुरूष और 59 फीसदी महिलाएं शिक्षित की श्रेणी में आती है लेकिन इसकी जमीनी हकीकत कुछ और है। युवा वर्ग पढ़ना तो जानते है लेकिन राजनीति का ज्ञान कम रखते है। उनकी नजरों में इस किताब का कोई मतलब नहीं है।
यह आंकड़े देखने में जितने मीठे है अंदर से खंगालने पर इनकी सच्चाई उतनी ही कड़वी है। लोग आज भी शिक्षित नहीं हो पाए है ज्यादातर लोगों को अपने नाम के अलावा कुछ लिखना तक नहीं आता है। ऐसे में जहन में सवाल उठता है कि राज्य में इस किताब को छपवाने का फायदा किसे होगा क्या उस निम्न वर्ग की जनता को जो खुद पढ़ना नहीं जानती है या फिर उन राजनेताओं को जो किताब के जरिए अपना काम पूरा करने में लगे हुए है।
(आशु दास)