नई दिल्ली। हर व्यक्ति की अपनी विशेषता है। कोई पढ़ाई लिखाई में अच्छा होता हैं तो कोई पढ़ने में बिल्कुल अच्छा नहीं होता बल्कि वो खेल में अच्छा हो सकता हैं कहने का मतलब यें हैं कि हर कोई किसी ना किसी जगह परफेक्ट होता ही हैं ऐसा कोई नहीं हैं जो हर जगह हर किसी में परेफैरक्ट हो पर कोई भी सख्स तबतक संतुष्ट रहता है, जब तक कि वह खुद की तुलना दूसरों से नहीं करता।
तुलना कभी-कभी व्यक्तित्व विकास में सहायक होती है लेकिन यह हीन-भावना से भी भर सकती है। कुछ लोग हर बात में अपने पार्टनर की तुलना दूसरों से करने लगते हैं। महिलाओं के साथ अक्सर ये चीजें होती हैं। जब तक महिलाएं अपने पार्टनर के साथ खुश है तब तक सब सही रहता है। लेकिन जैसे ही उनकी जिंदगी में जरा उथल-पुथल होती है तो वो मन ही मन अपने पार्टनर की दूसरे पुरुषों से तुलना करने लगती हैं। ये चीजें रिश्तों में सीधे तौर पर दरार लाती हैं। इसलिए इस चीज से दूर रहें।
ग्रीक दार्शनिक प्लेटो और अरस्तू बहुत पहले तुलना के मनोविज्ञान पर लिख चुके हैं। कोई व्यक्ति अपने भीतर सुखी व संतुष्ट हो सकता है मगर जैसे ही वह दूसरे से अपनी तुलना करता है, दुखी और असंतुष्ट होने का बहाना उसे मिल जाता है। सोशल साइंटिस्ट लिऑन फेस्टिंगर का ‘सामाजिक तुलना का सिद्धांत दर्शाता है कि तुलना की भावना व्यक्ति में प्राकृतिक रूप से है। इसी के बलबूते वह जान पाता है कि वह कितना अच्छा या बुरा है।
स्वस्थ प्रतिस्पर्धा
तुलना के कुछ अच्छे आधार होते हैं। मसलन, किसी धावक के लिए 200 मीटर की रेस 50 सेकंड में पूरा करना एक उपलब्धि हो सकता है लेकिन जब वह देखता है कि दूसरा धावक उसी दूरी को 40 सेकंड में तय कर रहा है तो उसे पता चलता है कि उसकी रेस में अभी सुधार की गुंजाइश है। ऐसी तुलना में स्वस्थ प्रतिस्पर्धा की भावना है, जो अच्छी है।
सीमा से बाहर तुलना
तुलना की एक सीमा तय होनी चाहिए। सीमा से बाहर तुलना से मन पर बोझ बढ़ता है कि कुछ तो ऐसा है, जो दूसरों के पास है, हमारे पास नहीं। किसी में पहले से आत्मविश्वास की कमी हो तो दूसरों से तुलना उसे और हीन-भावना से ग्रस्त कर देगी। यह भी सच है कि कोई कितना भी सफल, काबिल, धनवान या बुद्धिजीवी क्यों न हो, हमेशा कोई दूसरा उससे अधिक मजबूत, धनवान, सफल, बड़ा, सुंदर, खुश और ताकतवर होता ही है।
सही तुलना कैसे करें
खूबसूरती देखने वाले की आंखों में होती है। इसका अर्थ तो यह हुआ कि जो दिख रहा है, उससे अधिक महत्व उसका है, जो देख रहा है। वास्तविकता यह है कि देखने वाले की नजर केवल चेहरे, कद या वजन तक जा सकती है, वह यह नहीं जान सकता कि सामने वाला कितना कूल या गुस्सैल है। कोई भी व्यक्ति हूबहू दूसरे की कार्बन कॉपी नहीं हो सकता। जिस समाज में लोगों से ऐसी अपेक्षा की जाए, वहां सिर्फ क्लोन तैयार होंगे, वहां रचनात्मकता या प्रयोगों की संभावना नही रहती।
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