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बेनकाब हुई आम आदमी पार्टी की नैतिकता: डॉ दिलीप अग्निहोत्री

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नई दिल्ली। आम आदमी पार्टी का जन्म नई राजनीति के दावे के साथ हुआ था। जिसमें ईमानदारी और वीआईपी कल्चर की समाप्ति का जज्बा दिखाया गया था। इसके लिए अरविंद केजरीवाल ने एक प्रकार का मोहक तिलिस्म भी बनाया था। कभी अपनी चर्चित नीली वैगन आर कार की सवारी, ऑटोरिक्शा की सवारी, मेट्रो की सवारी, ये सब उनके इसी तिलिस्म के हिस्से थे। इनके माध्यम से केजरीवाल आम लोगों के सामने नई राजनीति की इबारत लिखने की अपनी कोशिश का प्रदर्शन कर रहे थे। दावा किया गया कि पार्टी की मोहल्ला समिति और दिल्ली के आम लोग ही पार्टी की नीतियों या फैसलों के बारे में सभी फैसले लेंगे। अन्ना हजारे के जनलोकपाल आंदोलन की विरासत का भी आम आदमी पार्टी को भरपूर फायदा मिला।

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बता दें कि एक बार सरकार छोड़कर भाग निकले केजरीवाल ने दूसरी बार रिकॉर्डतोड़ बहुमत से दिल्ली में सरकार बनाई। लेकिन उसके बाद उन्होंने जिस तरह की राजनीति की उसने तो पहले से चल रही स्थापित परंपराओं और राजनीति को भी बहुत पीछे छोड़ दिया। पहले जहां दिल्ली में एक या दो संसदीय सचिव होते थे, उसे केजरीवाल ने पर्याप्त नहीं माना और अपनी सनक में इन संसदीय सचिवों की संख्या 21 कर दी। कहां तो आम आदमी पार्टी पद-लिप्सा और वैभव से दूर रहने का दावा करते नहीं थकती थी, वहीं सरकार बनाने के बाद पदों का झुनझना ही पार्टी को जोड़े रखने का माध्यम बन गया। दिल्ली जैसे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में इतने संसदीय सचिव रखना किसी मजाक से कम नहीं था। जब चुनाव आयोग ने विधायकों की संसदीय सचिव के पद पर नियुक्ति को गलत मानाऔर लम्बे विचार-विमर्श के बाद उनकी सदस्यता रद्द करने की सिफारिश राष्ट्रपति से की, तब भी आम आदमी पार्टी ने आत्मचिंतन करने की कोशिश नहीं की। इसके विपरीत उसने इस निर्णय के लिए चुनाव आयोग और बीजेपी के प्रति हमलावर रुख अपना लिया।

वहीं चुनाव आयोग की सिफारिश मिलने के बाद स्थापित परंपरा के मुताबिक राष्ट्रपति ने भी बीस विधायकों की सदस्यता समाप्त करने की बात का अनुमोदन कर दिया। और इस तरह लाभ के पद पर आसीन बीस विधायकों की विधानसभा से सदस्यता समाप्त करने पर मोहर लग गई। इसके बाद इन विधायकों की सदस्यता समाप्ति और इनके स्थान रिक्त होने की अधिसूचना भी जारी कर दी गई। आम आदमी पार्टी के कुछ विधायकों ने इस फैसले को दिल्ली उच्च न्यायालय में चुनौती भी दी थी। अदालत तत्काल सुनवाई को तैयार भी हुई, लेकिन इसमें उनको कोई राहत नहीं मिली। इसके विपरीत कोर्ट ने उन्हें फटकार लगाते हुए कहा कि उनकी पार्टी ने गुमराह करने का प्रयास किया है।

आम आदमी पार्टी के नेता कह रहे थे चुनाव आयोग ने उनका पक्ष नहीं सुना। जल्दीबाजी में फैसला सुना दिया। जबकि सच्चाई इसके विपरीत है। चुनाव आयोग ने इनको बुलाया, लेकिन ये विधायक जानते थे कि इनका आधार कमजोर है इसलिए ये अपना पक्ष रखने से कतराते रहे। यह सब वैसा ही था, जैसे ईवीएम पर विपक्ष को आरोप सिद्ध करने की जब चुनाव आयोग ने चुनौती दी, तब आम आदमी पार्टी सहित सभी अन्य पार्टियां चुनौती का सामना करने की जगह भाग खड़ी हुई थीं। वे जानती थीं कि उनके आरोपों में दम नहीं था। बीस विधायकों की सदस्यता रद्द होने के मामले में भी आम आदमी पार्टी की यही दशा है। चुनाव आयोग ने ग्यारह बार इस मामले की सुनवाई की थी। यह मामला डेढ़ वर्ष से ज्यादा समय तक चला। मतलब ग्यारह बार बुलाने के बावजूद आम आदमी पार्टी ने चुनाव आयोग के सामने अपना पक्ष नहीं रखा।

आम आदमी पार्टी ने जिस नई राजनीति की शुरुआत की है उसमें बिना हिचके झूठ बोलना भी शामिल है। इसीलिए बार बार एक झूठ कहा जा रहा है कि चुनाव आयोग ने उनका पक्ष सुना ही नहीं। ऐसा कहने वालों में सिर्फ सामान्य नेता ही नही, बल्कि नवनिर्वाचित राज्यसभा सदस्य संजय भी शामिल हैं। आम आदमी पार्टी का ये दावा भी है कि विधायकों को लाभ का पद की कल्पना के अनुरूप अलग से कोई कमरा या कोई अन्य लाभ नहीं दिए गए। यह दावा भी असत्य साबित हुआ। चुनाव आयोग में आम आदमी पार्टी ने केवल इतना बताया कि इन विधायकों को वेतन नहीं मिलता था। जबकि चुनाव आयोग ने कहा कि लाभ के पद का मतलब केवल वेतन नहीं बल्कि इस पद पर बने रहने के दौरान हासिल होने वाली सुविधाएं भी हैं। संविधान के अनुच्छेद 164 में 91वें संशोधन के माध्यम से निर्धारित किया गया था कि मंत्रियों की संख्या लोकसभा या विधानसभा के सदस्यों के पन्द्रह प्रतिशत से ज्यादा नहीं हो सकती।

वहीं दिल्ली में यह संख्या दस प्रतिशत तक सीमित है। ऐसे में तमाम राज्यों में अपने नेताओं को खुश करने के लिए संसदीय सचिव बनाने, बोर्ड या कॉरपोरेशन का अध्यक्ष बनाने जैसी परंपरा को बढ़ावा दिया गया। यह गलत तरीके से अपने विधायकों को उपकृत करने का तरीका था। इसलिए स्वाभाविक रूप से दिल्ली में 21 संसदीय सचिव बना देने को भी उचित नहीं माना जा सकता। इतना ही नहीं दिल्ली की केजरीवाल सरकार ने 27 और विधायकों को उपकृत करने के लिए उन्हें रोगी कल्याण समिति का अध्यक्ष बना दिया। अब इन विधायकों के सामने भी अयोग्य घोषित कर दिये जाने की बात को लेकर तलवार लटकी हुई है, क्योंकि इनके खिलाफ भी लाभ के पद मामले में अयोग्य ठहराए जाने की याचिका दायर की गई है।

साथ ही नैतिकता और ईमानदारी का दावा करने करने वाली आम आदमी पार्टी ने अपने विधायकों को फायदा पहु्ंचाने के लिए जिस तरह से अनैतिक तरीकों को बढ़ावा दिया, वस्तुतः वह भी उसकी कथित नई राजनीति का एक नमूना बन गया है। दिल्ली विधानसभा की नियमावली में संसदीय सचिव का पद न होने के बावजूद ऐसे पहले तो 21 पद सृजित किये गये। बाद में विधायकों की सदस्यता को बचाने के लिए दिल्ली विधानसभा में अयोग्यता निवारण कानून 1997 में संसोधन कर संसदीय सचिवों को लाभ के दायरे से बाहर किया गया। इतना ही नहीं इसे पुरानी तारीख से लागू किया गया, ताकि विधायकों की सदस्यता को बचाया जा सके।

लेकिन इसी तकनीकी भूल की वजह से अदालत ने आम आदमी पार्टी के विधायकों को राहत देने से इनकार कर दिया। वैसे संविधान के अनुच्छेद 226 और 32 के अनुसार इस मामले में चुनाव आयोग या राष्ट्रपति के निर्णय के विरुद्ध अदालत में अपील की जा सकती है और आम आदमी पार्टी ऐसा कर भी रही है, लेकिन ये एक बड़ा सच है कि इस पूरे मामले में आम आदमी पार्टी की नैतिकता पूरी तरह से बेनकाब हो गई है और अपनी ईमानदारी का ढिंढोरा पीटने वाले अरविंद केजरीवाल के लिए अपनी बेईमानी को छिपाने का कोई तरीका नहीं बचा है।

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