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ईवीएम को लेकर ‘हंगामा है क्यों बरपा’?

election commission mayawati kejriwal ईवीएम को लेकर 'हंगामा है क्यों बरपा'?

यूपी विधानसभा चुनाव के बाद से लगातार ईवीएम की विश्वसनीयता पर राजनीतिक दल सवाल उठा रहे है। यूपी में भाजपा को मिली प्रचंड जीत के बाद सिलसिला बसपा सुप्रीमो मायावती से शुरु हुआ और मामला इस कदर तूल पकड़ा कि विरोध ने राष्ट्रीय राजनीति में स्थान बना ली। लोकतांत्रिक व्यवस्था प्रणाली की ईवीएम की विश्वनीयता पर प्रश्न खड़ा होना चिंतनीय विषय है। विरोधी पार्टियां लगातार आरोप लगा रही हैं कि भाजपा ने कुछ सांठ गांठ के दम पर यूपी में अविश्वसनीय जीत हासिल की है। यूपी की राजनीति से शुरु हुआ यह ईवीएम युद्ध अब दिल्ली में भी देखने को मिल रहा है।

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दिल्ली में इसी महीने की 23 तारीख को एमसीडी के चुनाव होने है, केजरीवाल ने इस मुद्दे को एकबार फिर से तूल देते हुए चुनाव आयोग से मांग की है कि एमसीडी चुनाव में बैलेट पेपर से चुनाव कराए जाएं, इतना ही नहीं कांग्रेस ने भी चुनाव आयोग से मुलाकात करते हुए ईवीएम को हटाने की मांग की है। हालांकि चुनाव आयोग लगातार कहता रहा है कि जिसे भी शिकायत है वह ईवीएम में कमी बताए और उसे सत्यापित करें, लेकिन जब एक तरफ से सभी विपक्षी दलों ने सवाल उठाने शुरु कर दिए हैं ऐसे में आयोग को भी सर्वदलीय बैठक बुलाई है, जिसमें आयोग ने कहा है कि 16 विपक्षी दलों की ईवीएम की खामियों को दूर करने या फिर आगे के चुनावों को बैलेट पेपर के जरिए ही कराने की मांग पर इस बैठक में विचार किया जाएगा।

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ज्ञात हो कि पूरे देश में साल 2004 से ईवीएम के माध्यम से चुनाव कराए जा रहे हैं समूचे देश में मतदान के लिए ईवीएम प्रणाली लागू है। ऐसे में ईवीएम पर बिना किसी ठोस सबूत के प्रश्न खड़ा करना राजनीतिज्ञों के लिए कितना सही है, इस पर तो उन्हें स्वयं ही विचार करना होगा। ईवीएम की गड़बड़ी के मामले को लेकर मीडिया की सुर्खियों में आया अटेर उपचुनाव की वलि ऐसे अधिकारी भी चढ़ गए जो जनता के काफी चहेते थे। उनका विकास के साथ-साथ कुछ नया करने का सोच भी था। आज मुद्दा ऐसे अधिकारियों के स्थानांतरण होने का इतना बड़ा नहीं है, जितना निर्वाचन आयोग की निष्पक्षता की साख पर लगाया जाना है। निर्वाचन आयोग ने कहीं न कहीं अपनी साख को बचाने के लिए बिना किसी पड़ताल के राजनीतिक दवाब में आकर जो कार्रवाई की है, वह भी उचित नहीं ठहराई जा सकती।उप्र में भारतीय जनता पार्टी की बंपर जीत को कोई भी राजनीतिक दल पचा नहीं पा रहा है। चाहे वह बसपा, सपा हो या फिर कांग्रेस।

 

इतना बड़ा प्रचण्ड बहुमत मिलने की किसी को भी आशा नहीं थी, लेकिन देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से देश की जनता दिल से प्रभावित है। उसे पता था कि उप्र के चुनाव परिणाम देश की राष्ट्रवादी राजनीति की दिशा तय करेंगे। जो लोग बढ़ते मोदी के वर्चस्व से परेशान थे, उनको मोदी की खिलाफत करने का मौका मिलेगा, जो देश की राष्ट्रवादी राजनीति को पीछे ढकेल सकती है। लोग सपा, बसपा से ऊब चुके थे। उन्होंने लोकसभा के चुनाव में ही इनको हटाने का मन बना लिया था। इस कारण एक-एक बोट राष्ट्रवाद की राजनीति के नाम से गिरा, बहन मायावती को लगता था कि सपा के विरोध का फायदा बसपा को होना ही है। इस मंसूबे पर भी उप्र की जनता ने पानी फेर दिया। तो उन्हें भी ईवीएम में खोट नजर आई। उनका तर्क था कि मुस्लिम बहुल क्षेत्र में भाजपा कैसे जीत गई। शायद उन्हें इस बात का अहसास नहीं कि देश में राष्ट्रवादी मुस्लिम भी रहते हैं और वे भाजपा सरकार में ज्यादा सुरक्षित हैं। इस कारण मुस्लिम समुदाय ने भी भाजपा के पक्ष में मतदान किया तो इसमें हैरानी की क्या बात है।

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