धर्म

जीवन इतना कठिन क्यों है? आखिर क्यों इंसान होता है हताश?

God isha जीवन इतना कठिन क्यों है? आखिर क्यों इंसान होता है हताश?

जो कुछ हम इस दुनिया में देखते उसे कैसे समझते हैं? आतंकवादी हमले, सेक्स गुलामी, नस्लवाद, दुनिया में भूख से मरते हुए लोग? अवचेतन रूप से, बहुत बार शायद हम अपने आप से प्रश्न पूछते हैं। पर चेतन अवस्था में शायद ही कभी। हम अपना जीवन जीने में इतने व्यस्त रहते हैं कि शायद ही कभी रुकते हैं और हैरान होते हैं कि ऎसा क्यों होता है? पर कभी ऐसा कुछ हो जाता है जिससे हम जाग जाते हैं। हमारे माता-पिता का तलाक हो जाता है, पास के मुहल्ले में रहनेवाली लड़की का कोई अपहरण कर लेता है, या किसी संबंधी को कैंसर हो जाता है।
ऐसा होना कुछ समय के लिए हमें जगा देता है। पर बहुत बार हम फिर से अस्वीकृति में डूब जाते हैं। तब तक, जब तक कि किसी दूसरी त्रासदी का सामना नहीं होता। फिर हम सोचने के लिए बाध्य हो जाते हैं, कि यहाँ कुछ सही नहीं है। कुछ ऐसा है जो बिल्कुल गलत है। जीवन को इस तरह का नहीं होना चाहिए!

तो, बुरी चीजें ‘क्यों’ होती हैं?
यह संसार एक बेहतर जगह क्यों नहीं है? क्यों? संसार जैसा है वैसा इसलिए है क्योंकि, एक तरह से, ऐसा संसार हमने माँगा है। सुनने में अजीब लगता है? क्या, या कौन इस संसार को बदल सकता है? क्या, या कौन इस बात की गारंटी दे सकता है कि जीवन दुखों से मुक्त होगा, सबके लिए, सब समय?

परमेश्वर कर सकता है। परमेश्वर उसे पूरा कर सकता है। पर वह वैसा नहीं करता है। कम से कम इस समय तो नहीं। और परिणामस्वरूप, हम उस से नाराज हैं। हम कहते हैं, “परमेश्वर सशक्त और सभी को प्रेम करनेवाला नहीं हो सकता। अगर वह वैसा होता, तो यह संसार जिस तरह से है, वैसा नहीं होता!”

हम ऐसा इस आशा से कहते हैं, कि शायद इस विषय में परमेश्वर अपनी स्थिति बदल दे। हम यह आशा करते हैं कि यदि हम उस को अपराधबोध करेंगे, तो शायद वह जिस तरह काम करता आया है, उसमें बदलाव लाएगा।
पर ऐसा लगता है वह अपने ठान से हिलना नहीं चाहता। वह ऐसा क्यों नहीं करता है? परमेश्वर अपने ठान से नहीं हिलता – वह इसी समय चीजों को परिवर्तित नहीं करता है – क्योंकि जो हमने उससे माँगा है, वह हमें वह दे रहा है: एक ऐसा संसार जहाँ हम उसके साथ ऐसा व्यवहार करते है जैसे वह अनुपस्थित और अनावश्यक हो।

क्या आपको आदम और हव्वा की कहानी याद है? उन्होंने, “मना किया हुआ फल” खाया था। वह फल एक ‘विचार’ था कि परमेश्वर ने जो उन्हें कहा या जो उन्हें दिया है, उसे वे अनसुना और अनदेखा कर सकते हैं। आदम और हव्वा ने एक तरह से आशा की कि वे बिना परमेश्वर के, परमेश्वर की तरह बन जाएँगे। उन्होंने इस विचार को महत्व दिया कि परमेश्वर के अस्तित्व के अलावा, और उसके साथ एक व्यक्तिगत सम्बंध बनाने से ज़्यादा, कुछ और है जो कि ज्यादा कीमती है। और, इस संसार की प्रणाली–अपनी सभी गलतियों के साथ–उनके इस चुनाव के फलस्वरूप बनी।

एक तरह से उनकी कहानी हम सबकी कहानी है। है ना? हम में से कौन है जिसने ये बात कभी नहीं कही है- अगर ऊँचे स्वर में नहीं, कम से कम अपने मन में ही सही- “परमेश्वर मैं सोचता हूँ कि यह काम मैं आपके बिना कर सकता हूँ। मैं अकेले ही यह कर लूंगा। पर प्रस्ताव देने के लिए धन्यवाद।” हम सबने, बिना परमेश्वर के, जीवन को सुचारू रूप से चलाने की कोशिश की है।
हम ऐसा क्यों करते हैं? शायद इसलिए क्योंकि हमने इस धारणा को अपना लिया है कि कुछ और चीज़ मूल्यवान, और ज़्यादा महत्वपूर्ण है – परमेश्वर से भी ज्यादा। अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग चीजें हैं, पर मानसिकता सबकी एक जैसी ही है: कि, परमेश्वर जीवन में सबसे अधिक महत्वपूर्ण नहीं है। असल में, मैं बस उनके बिना इसे पूरी तरह से कर लेता हूँ।

इस पर परमेश्वर की क्या प्रतिक्रिया है?

परमेश्वर हमें यह करने देता है! बहुत से लोगों को इसके दुखद फल का अनुभव होता है, दूसरों के या फिर उनके स्वयं के चुनाव के कारण, जो कि परमेश्वर के तरीके के विपरीत चलता है…हत्या, यौन शोषण, लालच, झूठ, धोखा, बदनामी, व्यभिचार, अपहरण आदि।

इन सब बातों को वे लोग समझा सकते हैं, जिन्होंने परमेश्वर को अपने जीवन में आने नहीं दिया, और अपने जीवन को उससे प्रभावित नहीं होने दिया। ये लोग अपने जीवन को उसी तरह से व्यतीत करते हैं जिस तरह वे सोचते हैं कि सही है, जिस कारण वे और दूसरे लोग दुखित रहते हैं।
-everystudent dot in से साभार

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