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क्या इस बार होगी इन मुद्दों की वकालत या फिर हर बार की तरह होगी सियासत

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  • संवाददाता, भारत खबर

चुनावों के ऐलान के साथ ही देशभर में सियासदांओ की हलचल तेज हो गई है। जोड़-तोड़ गुणा-भाग और नजाने क्या-क्या? लेकिन इन सभी के बीच जनता के उन मुद्दों की बात कोई नहीं करता जिनकी जरूरत लगभग सभी को होती है, हम बात कर रहे हैँ दैनिक जीवन से सम्बंधित और जमीनी स्तर की उन जरूरतों की जिनसे आपका और हमारा सरोकार रोजाना बना रहता है। तो बाईए आज जानते हैं कि वो कौन-कौन से मुद्दे हैं-

महंगाई पर क्या होगा ‘नेताओं का स्टंट’

आम तौर पर किसी भी चुनाव में महंगाई सबको प्रभावित करने वाला मुद्दा रहा है, लेकिन इस चुनाव में यह मुद्दा उतना जोर पकड़ता नहीं दिख रहा है। मोदी सरकार कहीं न कहीं महंगाई पर लगाम लगाने में कामयाब रही है। विपक्षी पार्टियां चाहकर भी महंगाई के मुद्दे पर बीजेपी को घेर नहीं सकी हैं। वहीं कुछ जानकारों का कहना है कि महंगाई पर लगाम लगाने का एक बड़ा कारण यह है कि किसान से कम दाम पर ही सामान सामान खरीदा गया। ऐसे में महंगाई कंट्रोल करने में तो भले ही कामयाबी मिली हो, लेकिन ग्रामीण इलाकों में पार्टी को इसकी कीमत चुकानी पड़ सकती है।

क्या कोई करेगा नौकरी की बात

मोदी सरकार के खिलाफ विपक्ष के तरकश में ‘रोजगार’ का तीर सबसे अहम है। कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी पार्टियां सरकार को कई बार इस मुद्दे पर घेर चुकी हैं। मोदी सरकार को 2014 में नौकरियों का वादा करने पर बड़ी सफलता मिली थी, लेकिन कहीं न कहीं वह इस वादे को पूरा करने में सफल नहीं दिख रहे हैं। सरकार पर डेटा में हेरफेर कर इस मुद्दे के प्रति गंभीरता नहीं बरतने का आरोप भी लगता रहा है। सरकार ने ईपीएफओ नंबर बढ़ने और मुद्रा लोन की संख्या बढ़ने का हवाला देकर रोजगार का वादा पूरा करने के सबूत देने की कोशिश की है, लेकिन विपक्ष इससे कहीं भी सहमत नहीं है।

गांव, किसानों को कब मिलेगी राहत?

किसान- या कहें कि ग्रामीण वोटर्स- ने 2014 में मोदी सरकार की जीत में बड़ा रोल निभाया था। वहीं इस बार कृषि निवेश में बेहतर रिटर्न न मिलने से ग्रामीण वोटरों में नाराजगी है। नोटबंदी जैसे कदमों ने इस मुद्दे को अहम बना दिया है। राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश के चुनाव में कांग्रेस ने इस मुद्दे का पूरा फायदा उठाने की कोशिश की और उन्हें सफलता भी मिली। इसके बाद बीजेपी ने कई और रास्तों से किसानों की मदद कर इस कमी को पूरा करने की कोशिश की है।

जातीय समीकरण से छुटकारा

भारत में अब तक हुए चुनावों में जातीय समीकरण के आधार पर किसी भी पार्टी की मजबूती का अंदाजा लगाना बेहद आसान रहा है। लेकिन इस बार का चुनाव इस मामले पर काफी अलग रहने वाला है। विपक्ष मोदी को हराने के लिए इस बार जातीय समीकरण को आधार बना रहा है। विपक्ष का मानना है कि यूपी में यादव, जाटव और मुसलमान के साथ आने से बीजेपी के हराना काफी आसान होगा। वहीं बिहार में कांग्रेस समेत कई विपक्षी दलों ने लालू के साथ गठबंधन कर ओबीसी और मुसलमान वोटों के भी एकजुट करने की कोशिश की है। बीजेपी को 2014 में बड़ी जीत इसलिए मिली थी क्योंकि मोदी कुछ उन जातियों का भी समर्थन मिला था, जिन्हें आम तौर पर विपक्षी पार्टियों का आधार माना जाता है। मध्य प्रदेश और राजस्थान में बीजेपी को मिली हार के पीछे तथ्य दिए गए कि उच्च वर्ग बीजेपी से दूर हो रहा है। ऐसे में बीजेपी ने गरीब सवर्णों को 10 प्रतिशत आरक्षण देकर उन्हें अपने खेमे में बनाए रखने की कोशिश की है।

भ्रष्टाचार का क्या होगा समाधान?

2014 के चुनाव में कांग्रेस को इससे सबसे ज्यादा नुकसान हुआ था। इसके बाद ही कांग्रेस को अब तक की सबसे बड़ी हार का सामना करना पड़ा था। पीएम मोदी ने अपने कार्यकाल में पूरी कोशिश की है कि बीजेपी पर ऐसे आरोप न लग पाएं। यहां तक कि पीएम ने कई जगहों पर यह कहा भी कि उनके कार्यकाल में उनकी सरकार भ्रष्टाचार का कोई भी आरोप नहीं लगा है। लोगों ने नोटबंदी के कड़वे घूंट को भी इसलिए आसानी से पी लिया क्योंकि उन्हें लगता है कि पीएम भ्रष्टाचार खत्म करने के लिए यह कदम उठा रहे हैं। हालांकि अभी तक इस बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता कि राहुल गांधी की तरफ से लगाए जा रहे राफेल घोटाले के आरोपों का जनता पर क्या असर पड़ेगा।

This is taken from Navbharattimes.com

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