लखनऊ। बुधवार के प्रातः कालीन सत् प्रसंग में रामकृष्ण मठ लखनऊ के अध्यक्ष स्वामी मुक्तिनाथानंद ने बताया कि जब हमारे भीतर ‘अविद्या का मैं’ पन अर्थात अज्ञान का अहंकार का विनाश हो जाता है तब हम भगवत् आनंद की उपलब्धि कर सकते हैं और वह आनंद दो प्रकार का होता है।
एक, भगवान के साथ अभिन्न होकर अद्वैत आनंद और दूसरा भगवान के साथ जुड़े रहते हुए भी थोड़ा सा पृथक सत्ता का अस्तित्व रखना वह है द्वैत आनंद जो कि भक्तगण पसंद करते है। स्वामी जी ने बताया कि इस बात को श्री रामकृष्ण ने एक कुंभ का उदाहरण देते हुए समझाया- ‘मैं मानो कुंभ स्वरूप है, और ब्रह्म है समुद्र,चारों ओर जलराशि। कुंभ के भीतर भी जल है, बाहर भी जल। पर कुंभ तो है ही।
यही भक्त का ‘मैं’ का स्वरूप है। जब तक कुंभ है तब तक मैं और तुम है। तुम भगवान हो मैं भक्त हूँ तुम प्रभु हो मैं दास हूँ।’ अर्थात भक्त एक कुंभ है जो ‘मैं पन’ रखते हुए अंदर में एवं बाहर में भगवत् आनंद उपलब्धि करते हैं।
उन्होंने कहा कि ज्ञानीगण जगत का अस्तित्व अस्वीकार करते हुए ब्रह्म में जगत को लीन करके अद्वैत का आनंद उठाते हैं जबकि भक्त जगत को भगवत् मय देखते हैं, वो देखते हैं ईश्वर ही दृश्यमान जगत रूप में सर्वभूत में विराजमान हैं।
जिसको जैसी रुचि है वह वैसे आनंद लेना चाहता है। ज्ञानी नहीं चाहते हैं कि भगवान के साथ उनका कोई पृथक सत्ता रहे। वो अपने को ईश्वर में विलीन कर देना चाहते हैं। लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं है कि उनका नाश हो जाता है।
जैसे उपनिषद में कहा गया है एक बिंदु निर्मल जल विशाल जलराशि में प्रक्षिप्त होने से उनके साथ अभिन्न हो जाता है। तब उनका बिंदुत्व नहीं रहता है। वो विराट रूप प्राप्त होते हैं। जैसे शास्त्र में कहा गया है-‘ब्रह्मवित् ब्रह्मैव भवति’ अर्थात जो भगवान को जान लेते है वह भगवत् स्वरूप हो जाते हैं। लेकिन भक्त थोड़ा सा पृथक सत्ता रखते हैं भगवान के आनंद का आस्वादन करने के लिए।
स्वामी जी ने कहा कि भगवान श्री रामकृष्ण चाहते है कि हम लोग अज्ञान का अहंकार छोड़ते हुए भक्ति के ‘अहंकार’ का अस्तित्व रखते हुए भगवान के साथ द्वैत एवं अद्वैत दोनों प्रकार आनंद उपभोग करें एवं सर्वप्रकार से भागवत् आनंद लेते हुए जीवन सफल करें।