नई दिल्ली । सुप्रीम कोर्ट ने अपने ऐतिहासिक निर्णय में इच्छा मृत्यू को कानूनी अमलीजामा पहना दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने जीवन के अधिकार में सम्मान के साथ मरने का अधिकार भी शामिल है और लिविंग विल यानी जीवन संबंधी वसीयत व पैसिव यूथेनेशिया यानी निष्क्रिय इच्छामृत्य को कानूनी वैधता प्रदान करके यह दोहराया है कि एक व्यक्ति की अपने शरीर पर पूर्ण ‘प्रभुसत्ता’ है। इस प्रकार से व्यक्तिगत स्वतंत्रता प्रदान करने के अपने सिलसिले को जारी रखते हुए उसने अन्य अनेक चीजों के लिए भी आधारशिला रखी है, जैसे आत्महत्या के प्रयास को अपराध की श्रेणी से बाहर रखना। साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने कुछ बुनियादी प्रश्न भी उठाए हैं, जैसे-क्या मृत्यु के अधिकार से इन्कार किया जा सकता है जब स्वास्थ्य के अधिकार की गारंटी नहीं दी गई है?
इस निर्णय का महत्व इस दृष्टि से अधिक बढ़ जाता है कि सरकार आत्महत्या को अपराध की श्रेणी से बाहर निकालने के संदर्भ में कदम उठा चुकी है व पैसिव यूथेनेशिया को औपचारिक करने के लिए विधेयक ड्राफ्ट कर चुकी है, लेकिन वह लिविंग विल के सिलसिले में बहुत विरोधाभासी संकेत दे रही थी। लिविंग विल का अर्थ है कि अपने पूर्ण होशोहवास और मानसिक व शारीरिक स्वास्थ्य के होते हुए एक बालिग व्यक्ति ऐसी वसीयत तैयार करे कि भविष्य में अगर वह किसी लाइलाज बीमारी से ग्रस्त हो जाए या वेजिटेटिव (अक्रियाशील) स्थिति में फिसल जाए या अपरिवर्तनीय कोमा (अचेतनावस्था) में चला जाए तो डॉक्टर व उसके रिश्तेदार उसे ‘जिंदा’ रखने के लिए दिए जा रहे सहारों (लाइफ सपोर्ट) को हटा दें, जिससे वह ‘अपनी इच्छा’ से अपने जीवन का अंत कर सके, इसे पैसिव यूथैंसिया कहते हैं।
गौरतलब है कि 2016 में सांसद बैजयंत पांडा ने आत्महत्या को अपराध की श्रेणी से बाहर करने के लिए एक प्राइवेट बिल संसद में पेश किया था, जिसमें प्रस्तावित है कि जनाक्रोश व कानून व्यवस्था की स्थिति उत्पन्न करने वाली आत्महत्याओं को छोड़कर बाकी आत्महत्याओं को अपराध न माना जाए। भारतीय दंड संहिता की धारा 309 के तहत आत्महत्या का प्रयास करना दंडनीय अपराध है, जिसमें एक वर्ष की कैद या जुर्माना या दोनों हो सकते हैं। इसी को ध्यान में रखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 1996 में ज्ञान कौर मामले में कहा था कि सम्मान के साथ जीवन के अधिकार में प्राकृतिक जीवन पर विराम लगाने का अधिकार शामिल नहीं है, लेकिन अब अपने निर्णय में सळ्प्रीम कोर्ट ने कहा कि बदली हुई घरेलू व अंतरराष्ट्रीय स्थितियों को देखते हुए यह अदालत भविष्य में ज्ञान कौर निर्णय की पुनर्समीक्षा कर सकती है।