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महामारी में गांधी के स्वस्थ जीवन के मूल मंत्रों को अपनाने की जरूरत

गांधी महामारी में गांधी के स्वस्थ जीवन के मूल मंत्रों को अपनाने की जरूरत

लखनऊ। उत्तर प्रदेश गांधी स्मारक निधि गांधी भवन लखनऊ के तत्वाधान में शुक्रवार को गांधी स्वाध्याय गोष्ठी आभासी वर्चुअल रुप से संपन्न हुई । गोष्ठी का विषय ‘वर्तमान वैश्विक महामारी व महात्मा गांधी के स्वस्थ जीवन के सूत्ररखा गया था।

विषय पर बोलते हुए प्रमुख गांधीवादी विचारक डॉक्टर सूर्यभान सिंह गौतम ने कहा कि गांधी के एकादश महाव्रत का उल्लेख किया। कहा कि अहिंसा,  सत्य,  अस्तेय,  ब्रम्हचर्य, अपरिग्रह, शरीर-श्रम, अस्वाद, सर्वत्र भय वर्जनम, सर्वधर्म समानत्व, स्वदेशी,  स्पर्शभावना,  विनम्र व्रत निष्ठा से ये एकादश सेव्य  हैं।

महामारी की वैश्विक विकरालता से अपनी वार्ता न प्रारंभ करते हुए उन्होंने गांध के एकादश व्रतों का उल्लेख इसलिए किया कि गांधी जब बैरिस्टरी पढ़ने इंग्लैंड गए थे तब भारत इंग्लैंड अधीन हो गया था। हमारे सामाजिक जीवन में विदेशी आक्रांताओं और उनके यहां के सामाजिक जीवन मे रच-बस जाने से विकृतियां सामाजिक ताने-बाने को विच्छेद कर रही थीं।

गांधी महामारी में गांधी के स्वस्थ जीवन के मूल मंत्रों को अपनाने की जरूरत

उन्हें नियंत्रित करने के लिए ‘कानून के राज’ नारे का विकास हो चुका था। इंग्लैंड में आधुनिक चिकित्सा का न केवल विकास हो चुका था बल्कि आधुनिकता और सर्वश्रेष्ठ होने की भावना से समस्त ब्रिटिश साम्राज्य ग्रस्त हो चुका था। गांधी ने तब जर्मनी के प्राकृतिक चिकित्सक लुई कोनी से प्रेरणा लेकर जल चिकित्सा का न केवल अध्ययन किया बल्कि उसे अपनी दिनचर्या का अंग भी बनाया ।

उन्होंने बताया कि गांधी ने श्रीमदभगवत गीता और टाल्सटॉय का भी अध्ययन कर लिया था। सिनेमा को समय और संपत्ति की बर्बादी मानने लगे थे। शारीरिक,  वस्त्रिक और मन  की  स्वच्छता का आचरण करने लगे थे। उन्होंने रंगभेद, जातिभेद, वर्ग भेद की खाइयां इतनी गहरी यह भारत यात्रा के दौरान अनुभव कर लिया था।

ईसाई मिशनरियों के अपने धर्म प्रचार की  उग्रता और हिंदू मुसलमानों के बीच घृणा का भाव जड़ जमा चुका था तथा देश में सामाजिक सौहार्द्र  और सद्भाव विनष्ट हो चुका था । इसी परिप्रेक्ष्य में साबरमती आश्रम मैं किए गए प्रयोगों के आधार पर उन्होंने महर्षि पतंजलि द्वारा निर्धारित अष्टांग योग के प्रथम सोपान में तो किसी परिवर्तन की आवश्यकता नहीं महसूस की किन्तु नियम में आमूलचूल परिवर्तन करने का साहस बटोरा और सामाजिक सद्भाव,  सौहार्द और सेवा की नई इबारत लिखी।

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उन्होंने गांधी के बारे में कहा कि आधुनिक चिकित्सा पद्धति उन्हें खर्चीली और सर्वसुलभ न हो पाने वाली लगी। प्राचीन पद्धतियां प्रोत्साहन के अभाव में कोई सामाजिक सरोकार नहीं पूरी कर पा रही थीं। डॉ गौतम ने आगे कहा  कि अकाल, महामारी, मलेरिया के प्रकोप से हजारों लोग कालकवलित हो रहे थे, ऐसी स्थिति में उन्होंने प्राकृतिक चिकित्सा को बल देने की ठानी। ‘सब रोगों की एक दवा मिट्टी पानी धूप हवा’।

साबरमती आश्रम में किए गए प्रयोगों से उन्होंने एक टीम तैयार की जो लोगों को सुरक्षा एवं सांत्वना का बोध कराती थी। संस्कृत के प्रकांड विद्वान परचुरे की  वह स्वयं परिचर्या करते थे, क्योंकि कुष्ठ को एक छूत का रोग माना जाता था।

डॉ. गौतम ने आगे कहा आज महामारी की जिस विभीषिका से हम जूझ रहे हैं वह भी संक्रमण से ही हो रही है। पहली लहर आई और गई अब उसकी दूसरी लहर जोरों पर है। तीसरी लहर की आशंका व्यक्त की जा रही है। चारों ओर  हताशा,  निराशा, किंकर्तव्यविमूढ़ता का कुहासा छाया हुआ है।

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संसाधनों की अपर्याप्तता तथा जनसंख्या का आकार लोगों को ही नहीं पूरे सरकारी तंत्र को अपंग बना रही है। इसमें गांधी की उस दृढ़ता को हमे अपनाना होगा जो गांधी ने अंग्रेजों के सामने निहत्थे लोगों को सत्याग्रह के माध्यम से खड़े कर अंग्रेजों को भारत छोड़ने पर विवश कर दिया था। हम शिवसंकल्प के साथ एकजुट होकर इस महामारी का सामना कर सकेंगे और इस पर विजय पा सकेंगे।

गांधी चिंतन के अध्येता विनोद शंकर चौबे ने विचार व्यक्त किया कि गांधी चिंतन  समग्र जीवन विचार है। यह आध्यात्मिकता की नींव पर खड़ा है। इसके पीछे सामाजिक व्यवस्था का विचार और शिक्षा की दृष्टि है। यह सांगोपांग कार्य है। गांधीजी की अनुदेशित जीवन पद्धति एक स्वस्थ, अविनाशी, अनाक्रान्त, अहिंसक व शांत जीवन को व्यक्त करती है।

उन्होंने कहा कि मानव जीवन के सभी चिंतन व व्यवहार तथा वर्ग, समुदाय और जाति इसमें संविलीन व समावेशी हैं । हमारा खान-पान. आवास,  वस्त्र,कला -साहित्य, दर्शन क्या और कैसा हो यह सूत्र गांधी जी ने दिया। एक अच्छे व स्वस्थ मानव जीवन जो सभी जीवों में अपने को देखें,  ऐसी शिक्षा जो सभी जीवों के प्रति सद्भाव, करुणा व  मैत्री से समर्पित हो,  सृष्टि में ब्रह्मांड के अछूते रहस्य यदि वह कल्याणकारी हो को छूने की क्षमता रखती हो की आवश्यकता गांधी जी ने बताया।

विनोद शंकर ने कहा कि मूलतत्व तो यह है कि व्यक्ति के जीवन निर्वाह का साधन क्या हो  जो पूरे राष्ट्र को हिंसा व  द्वंद्व  से मुक्त करते  हुए व  समावेशित करते हुए हो । उन्होंने आगे कहा कि ईश्वर में आस्था और सत्य सभी के लिए कल्याणकारी है। मनुष्य प्रकृति का अंग है। प्रकृति पर विजय पाने या उससे संघर्ष करने की प्रवृत्ति विनाशकारी है जो हमारे समक्ष प्रत्यक्ष है।

चिकित्सा के क्षेत्र में भी प्रकृति के तत्व धरती,  जल,  पावक,  गगन और समीर जिससे इस शरीर की रचना हुई है ही सहायक होंगे। अपने परिवेश और सतत चिंतन से उदभूत आयुर्वेद उपेक्षा का विषय नहीं है। मानव ने असंतुलन, विकाऱ, द्वंद्व, लिप्सा, भोग, बाजार पैदा किया है जिसका निश्चय ही परिणाम महामारी है। इससे निवारण गांधीजी के सदाचार, ब्रम्हचर्य, जनसंख्या नियंत्रण. नैतिकता, प्रकृति से तादात्म्य, द्वंद्व विहीन चिंतन व व्यवहार, स्वदेशी व परिवेश जन्य जीवन पद्धति से हो सकता है ।

चौबे ने कहा कि यदि गांधी की जीवन पद्धति पूर्व से ही अपनाए होते तो इस वैश्विक महामारी का इतना कुप्रभाव भारत पर न पड़ता। संविधान में पंथ (रिलिजन) प्रचार की स्वतंत्रता को समाप्त करने की आवश्यकता है क्योंकि यही भारी संघर्षों का कारण है। गोष्ठी में नीलम भाकुनी, आशुतोष निगम,के पी मिश्रा, अर्जुन प्रकाश सिंह, सर्वेश कुमार गुप्ता, के डी सिंह,  ओसामा, सचिव लाल बहादुर राय एवं उनके सहयोगियों ने विचार व्यक्त किए।

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