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किसानों ने की थी अंग्रेजों के खिलाफ नील आंदोलन की शुरुआत

किसानों ने की थी अंग्रेजों के खिलाफ नील आंदोलन की शुरुआत

नई दिल्ली: नील विद्रोह किसानों द्वारा किया गया एक आंदोलन था जो बंगाल के किसानों द्वारा सन 1859 में किया गया था। किन्तु इस विद्रोह की जड़ें आधी शताब्दी पुरानी थीं, अर्थात् नील कृषि अधिनियम (indigo plantation act) का पारित होना था।

इस विद्रोह के आरम्भ में नदिया जिले के किसानों ने 1859 के फरवरी-मार्च में नील का एक भी बीज बोने से मना कर दिया था। यह आंदोलन पूरी तरह से अहिंसक था तथा इसमें भारत के हिन्दू और मुसलमान दोनों ने बराबर का हिस्सा लिया था। सन् 1860 तक बंगाल में नील की खेती लगभग ठप पड़ गई थी। सन 1860 में इसके लिए एक आयोग गठित किया गया था।

 

नील आन्दोलन किसानों ने की थी अंग्रेजों के खिलाफ नील आंदोलन की शुरुआत

 

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नील विद्रोह (चंपारन विद्रोह)— सर्वप्रथम यह विद्रोह बंगाल 1859—61 में शुरू हुआ था, पूर्व में भी इस विद्रोह को भारतीयों द्वारा कुचल दिया गया था। जब गांधी जी ने चंपारन विद्रोह किया तो पाया कि वहां के किसानों को ब्रिटिश सरकार जबरन 15 प्रतिशत भू—भाग पर नील की खेती करने के लिए बाघ्य कर रही थी, तथा 20 में से 3 कट्टे किसानों द्वारा यूरोपीयन निलहों को देना होता था जिसे आज हम तिनकठिया प्रथा के रूप में भी जानते हैं। भारतीय किसान जिसकी दशा पहले से ही बहुत खराब थी ऐसी विषम परिस्थितियों में ब्रिटिश सरकार की यह हुकुमत उनके लिए परेशानी का सबब बन गई।

 

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जब 1917 में गांधी जी ऐसी विषम परिस्थितियों से अवगत हुए तो गांधी जी ने बिहार जाने का फैसला कर दिया गांधी जी मजरूल हक, नरहरि पारखि, राजेन्द्र प्रसाद एवं जे0 बी0 कृपलानी के साथ बिहार गये और ब्रिटिश हुकुमत के खिलाफ अपना पहला सत्याग्रह प्रदर्शन कर दिया।

 

ब्रिटिश सरकार ने उनके खिलाफ उन्हे वहां से निकालने का फरमान जारी किया किन्तु गांधी जी और उनके सहयोगी वहीं जुटे रहे और अन्तत: ब्रिटिश हुकुमत ने अपना आदेश वापिस लिया और गांधी जी द्वारा निर्मित समिति से बात करने के लिए सहमत हो गयी। फलत: गांधी जी ने बिहार (चंपारन)के किसानों की दयनीय परिस्थितियों से इस प्रकार शासन को अवगत करवाया की वह मजबूरन इस प्रकार के कृत्य को रोकने के लिए मजबूर हो गये।

 

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10 अप्रैल ही वह दिन था, जब 48 साल के मोहनदास करमचंद गांधी नील के खेतिहर राजकुमार शुक्ल के बुलावे पर बिहार के बांकीपुर स्टेशन (अब पटना) पहुंचे थे। उस समय अंग्रेजों द्वारा जबरन नील की खेती कराई जा रही थी। स्थानीय किसानों को इस समस्या से निजात दिलाने के लिए शुक्लाजी ने गांधीजी से अपील की थी कि वह इस मुद्दे पर आंदोलन की अगुवाई करें। उनकी अगुवाई वाले इस आंदोलन से न सिर्फ नील के किसानों की समस्या का त्वरित हल हुआ, बल्कि सत्य, अहिंसा और प्रेम के संदेश ने फिरंगियों के विरुद्ध भारतीयों को एकजुट किया था।

 

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वैसे, इस आयोजन की महत्वता इसलिए भी अधिक है, क्योंकि यही वह मौका था, जब देश को सत्याग्रह रूपी एक मजबूत हथियार हासिल हुआ था। सत्याग्रह गांधीजी का दिया वह हथियार है, जिसमें दुनिया के सबसे शक्तिशाली साम्राज्य से लोहा लेने की ताकत निहित थी। इसने मृण्मय भारत को चिन्मय भारत बनाने के सपने को संजो रखा था।

 

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बीसवीं शताब्दी में भारत समेत दुनिया के कई मुल्कों के लोगों के लिए महात्मा गांधी के सत्याग्रही औजार धर्म, अधिकार व कर्तव्य बन चुके थे। इनके साथ शर्त यह थी कि इन औजारों में सविनय और अहिंसा निहित हों। गांधी जी के भारत आगमन के बाद चंपारण का सत्याग्रह देश का पहला सत्याग्रह था। सत्य की राह पर चलकर असत्य का विरोध करने जैसी प्रतिज्ञा तो उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में ही ले ली थी।

 

 

वजह यह थी कि औद्योगिक क्रांति के बाद नील की मांग बढ़ जाने के कारण ब्रिटिश सरकार ने भारतीय किसानों पर सिर्फ नील की खेती करने का दबाव डालना शुरू कर दिया था। आंकड़ों की मानें, तो साल 1916 में लगभग 21,900 एकड़ जमीन पर आसामीवार, जिरात और तीनकठिया प्रथा लागू थी। चंपारण के रैयतों से मड़वन, फगुआही, दशहरी, सिंगराहट, घोड़ावन, लटियावन, दस्तूरी समेत लगभग 46 प्रकार के ‘कर’ वसूले जाते थे। और वह कर वसूली भी काफी बर्बर तरीके से की जाती थी।

 

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निलहों के खिलाफ चंपारण के किसान राजकुमार शुक्ल की अगुवाई में चल रहे तीन वर्ष पुराने संघर्ष को 1917 में मोहनदास करमचंद गांधी ने व्यापक आंदोलन का रूप दिया। आंदोलन की अनूठी प्रवृत्ति के कारण इसे न सिर्फ देशव्यापी, बल्कि उसके बाहर भी प्रसिद्धि हासिल हुई थी।

 

गांधी के बिहार आगमन से पहले स्थानीय किसानों की व्यथा, निलहों का किसानों के प्रति अत्याचार और उस अत्याचार के खिलाफ संघर्ष का इतिहास भले ही इतिहासकारों के दृष्टि-दोष का शिकार हो गया हो, लेकिन चंपारण के ऐतिहासिक दृश्यों में वह इतिहास आज भी संचित है।

 

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15 अप्रैल, 1917 को महात्मा गांधी के मोतिहारी आगमन के साथ पूरे चंपारण में किसानों के भीतर आत्म-विश्वास का जबर्दस्त संचार हुआ था। इस पहल पर गांधीजी को धारा-144 के तहत सार्वजनिक शांति भंग करने के प्रयास की नोटिस भी भेजी गई। चंपारण के इस ऐतिहासिक संघर्ष में डॉ राजेंद्र प्रसाद, अनुग्रह नारायण सिंह, आचार्य कृपलानी समेत चंपारण के किसानों ने अहम भूमिका निभाई।

 

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आंदोलन के शुरुआती दो महीनों में गांधीजी ने इस क्षेत्र के हालात की गहराई से जांच की। चंपारण के लगभग 2,900 गांवों के तकरीबन 13,000 रैयतों की स्थिति दर्ज की गई। इस मामले की गंभीरता उस समय के समाचारपत्रों की सुर्खियां बनती रहीं। इसे त्वरित परिणाम ही कहा जाएगा कि एक महीने के अंदर जुलाई ,1917 में एक जांच कमेटी गठित की गईर् और 10 अगस्त को तीनकठिया प्रथा समाप्त कर दी गई।

 

                  अंहिसा का पुजारी

                                                                                      सत्य की राह दिखाने वाला

                                                                                    ईमान का पाठ पढा गया हमें

                                                                                     वो बापू लाठी वाला

 

 

By: Ritu Raj

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