अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) के अधिनियम 1989 के तहत सप्रीम कोर्ट द्वारा नए दिशा निर्देश पेश किए गए हैं। कोर्ट ने कहा है कि अब इस तरह के मामलों पर ऑटोमैटिक गिरफ्तारी नहीं की जाएगी, बल्कि गिरफ्तारी से पहले आरोपों की पूरी जांच की जाएगी। गिरफ्तारी से पहले जमानत भी दी जा सकती है।
देश की सर्वोच्च अदालत ने कहा कि यदि कोई आरोपी व्यक्ति सार्वजनिक कर्मचारी है, तो नियुक्ति प्राधिकारी की लिखित अनुमति के बिना, यदि व्यक्ति सार्वजनिक कर्मचारी नहीं है तो जिला के वरिष्ठ अधीक्षक की लिखित गिरफ्तारी नहीं होगी। कोर्ट ने आगे कहा कि ऐसी अनुमतियाों के लिए कारण दर्ज किए जाएंगे और गिरफ्तार व्यक्ति और संबंधित अदालत में पेश किया जाना चाहिए। मजिस्ट्रेट को दर्ज कारणों पर अपना दिमाग लगाना चाहिए और आगे आरोपी को तभी हिरासत में रखा जाना चाहिए जब गिरफ्तारी के कारण वाजिब हों। यदि इन निर्देशों का उल्लंघन किया गया तो ये अनुशासानात्मक कार्रवाई के साथ-साथ अवमानना कार्वाई के तहत होगी। कोर्ट ने कहा कि संसद ने कानून बनाते समय यो नहीं सोचा था कि इसका दुरुपयोग किया जाएगा।
सुप्रीम कोर्ट एक्ट के हो रहे दुरुपयोग को देखते कोर्ट हुए कहा कि मामला दर्ज होने से पहले DSP स्तर का पुलिस अधिकारी प्रारंभिक जांच करेगा। इस मामले में अग्रिम जमानत पर भी कोई संपूर्ण रोक नहीं है। किसी भी सरकारी अफसर की गिरफ्तारी से पहले उसके उच्चाधिकारी से अनुमति जरूरी होगी।
महाराष्ट्र की एक याचिका पर यह निर्णय लिया गया है। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र औस एमिक्स क्यूरी अरेंद्र शरण की दलीलों को सुनने के बाद फैसला सुरक्षित रख लिया गया था। इस दौरान बेंच ने कुछ सवाल उठाते हुए कहा था, क्या अनुसूचित जनजाति (अत्याचार अनावरण) अधिनियम 1989 के लिए प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपाय किए जा सकते हैं ताकि बाहरी तरीकों का इस्तेमाल ना हो? क्या किसी भी एकतरफा आरोप के कारण आधिकारिक क्षमता में अधिकारियों पर मुकदमा चलाया जा सकता है, और यदि आरोपों को झूठा माना जाए तो ऐसे दुरुपयोगों के खिलाफ क्या सुरक्षा उपलब्ध है? क्या अग्रिम जमानत न होने की वर्तमान प्रक्रिया संविधन अनुच्छेद 21 के तहत उचित प्रक्रिया है?