नई दिल्ली। जिंदगी से तंग आ चुके या किसी बीमारी के कारण मौत की दहलीज पर खड़े लोगों को इच्छा मृत्यु देने की मांग वाली याचिका पर सुप्रीम कोर्ट की कॉन्स्टीट्यूशन बेंच शुक्रवार को फैसला सुना सकती है। कोर्ट ने इस मामले में 12 अक्टूबर 2017 को फैसला सुरक्षित रख लिया था, जिसके बाद केंद्र ने इच्छा मृत्यु का हक देने का विरोध करते हुए इसका दुरुपयोग होने की आशंका जताई थी। दरअसल एक एनजीओ ने इस मामले में लिविंग विल का हक देने की मांग करते हुए याचिका दाखिल की हुई है, जिसमे इच्छा मृत्यु को व्यक्ति का हक बताया गया है। लिविंग बिल में व्यक्ति जीवित रहते हुए वसीयत लिख सकता है कि लाइलाज बीमारी के कारण मृत्यु की दहलीज पर पहुंचने के दौरान उसके शरीर को लाइफ सपोर्टिंग सिस्टम पर न रखा जाए।
12 अक्टूबर को हुई सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार का पक्ष रखते हुए वकील ने कहा था कि अरुणा शानबाग केस में कोर्ट मेडिकल बोर्ड को ऐसे दुर्लभ मामलों में लाइफ सपोर्टिंग सिस्टम हटाने का हक दे चुका है। वैसे भी हर केस में आखिरी फैसला मेडिकल बोर्ड की राय पर ही होगा। अगर कोई लिविंग विल करता भी है तो भी मेडिकल बोर्ड की राय के आधार पर ही लाइफ सपोर्टिंग सिस्टम हटाया जाएगा। बता दें कि इच्छामृत्यु को लेकर सबसे पहले बहस साल 2011 में शुरू हुई थी। जब 38 साल से कोमा की स्टेट में रह रहीं केईएम अस्पताल की नर्स अरुणा शानबाग को इच्छा मृत्यु देने के लिए सुप्रीम कोर्ट में एक पिटीशन दायर की गई थी।
दरअसल अरुणा शानबाग के साथ 27 नवंबर 1973 में अस्पताल के ही एक वार्ड ब्वॉय ने रेप किया था। उसने अरुणा के गले में कस दी थी जिससे वे कोमा में चली गईं। वे 42 साल तक कोमा में रहीं। अरुणा की स्थिति को देखते हुए उनके लिए इच्छामृत्यु की मांग करते हुए एक पिटीशन दायर की गई थी, लेकिन तब कोर्ट ने यह मांग ठुकरा दी थी। इसके अलावा केरल के एक टीचर ने भी कोर्ट के सामने इच्छामृत्यु की मांग रखी थी। जिसे केरल हाईकोर्ट ने खारिज कर दिया था।