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उत्तराखंड की कुमाऊंनी होली में होती है ये खास बात, खिंचे चले आते हैं पर्यटक

कुमाऊंनी होली में होती है ये खास बात, खिंचे चले आते हैं पर्यटक

अल्मोड़ा: बरसाने की लट्ठमार होली की तरह ही उत्तराखंड की कुमाऊंनी होली का भी खास महत्व है। पहाड़ की होली अपने आप में संस्कार और मस्ती संजोए है। यहां के निवासी अपनी परंपराओं का सबसे पहले पालन करते हैं। यहां आज भी परंपरागत तरीके से होली का त्यौहार मनाया जाता है।

पहाड़ पर प्रचलित हैं कई प्रथाएं

अबीर-गुलाल और रंगों के साथ-साथ यहां दूसरी कई प्रथाएं प्रचलित हैं। पहाड़ की संस्कृति में होली पर बकरे की बलि देने की भी परंपरा है तो यहां चीड़ के पेड़ की भी पूजा की जाती है। उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल में होली का एक अलग ही महत्व और मजा है। यहां जो भी एक बार आता है वो यहां की संस्कृति में रच-बस जाता है।

holy 1 उत्तराखंड की कुमाऊंनी होली में होती है ये खास बात, खिंचे चले आते हैं पर्यटक

उसे यहां से जाने की इच्छा नहीं होती। यहां की परंपरागत होली को देखने के लिए देश-विदेश से दूर दूर से लोग आते हैं। कुमाऊं की होली निम्नलिखित तरीकों से मनाई जाती है।

बैठकी होली

पहाड़ की होली में कुमाउंनी होली का विशेष महत्व है। यहां की बैठकी होली में गायन की परंपरा प्राचीन काल से है। यहां के चंपावत के चंद राजाओं के शासन काल में भी इस होली की गूंज सुनाई देती थी। राज्य की सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा और पर्यटन नगरी नैनीताल में तो बैठकी होली में गीत गाने के लिए दूर-दूर से प्रसिद्ध गायक यहां आते थे और गीत गाते थे।

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बता दें कि बैठकी होली की शुरुआत बसंत पंचमी के दिन ही शुरू हो जाती है। तब होली पर आधारित गीतों को घर की बैठक में हारमोनियम और तबले की धुन पर गाया जाता है। इन गीतों में कहीं भगवान कृष्ण तो कहीं मीराबाई का जिक्र सुनने को मिलता है। वहीं, दिल्ली के आखिरी मुगल शासक बहादुर शाह जफर का भी जिक्र इन गीतों में मिलता है। बैठकी होली के आयोजनों में ठुमरियां भी गाई जाती हैं।

खड़ी होली

बैठकी होली के कुछ दिनों के बाद बैठकी होली का आयोजन होता है। इसका सबसे अधिक प्रभाव ग्रामीण इलाकों में देखने को मिलता है। इस होली में सामाजिक समरसता भी देखने को मिलती है।

कुमाऊंनी होली में होती है ये खास बात, खिंचे चले आते हैं पर्यटक

इस होली में ग्रामीण नुकीली टोपी के साथ साथ कुर्ता और चूड़ीदार पैजामा पहनकर एक जगह पर खड़े होते हैं। इसके बाद ये लोग होली के मंगल गीत गाते हैं। इसके साथ-साथ ग्रामीण ढोल-दमाऊ और हुड़के के धुन पर नाचते हैं।

खड़ी होली के गीत विशेषकर कुमाऊंनी भाषा में होते हैं। होली गाने वाले लोगों को होल्यार कहा जाता है। होल्यार लोगों के घर जाते हैं और उनकी समृद्धि की मंगलकामना करते हैं।

चीड़ बन्धन और चीड़ दहन

होली मनाने के एक दिन पहले इसे मनाया जाता है। होलिका दहन करने से 15 दिन पहले ही चीड़ की लकड़ियों को इकट्ठा करके होलिका का निर्माण कर लिया जाता है। इसे ही चीड़ बंधन कहा जाता है। इसके बाद रंग वाली होली से एक रात पहले ही इस चीड़ की लकड़ी का दहन किया जाता है।

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इसे चीड़ दहन कहा जाता है। गांव के लोग 15 दिन पहले से ही अपने क्षेत्र में लगे चीड़ के पेड़ की रक्षा करने लग जाते हैं। यहां पर मान्यता है कि अगर किसी ने उनके गांव में आकर चीड़ की लकड़ी चुरा ली तो उस साल वो होलिका दहन नहीं कर पाएंगे।

कुमाऊं में होलिका दहन की वही कहानी है जो देश के दूसरे राज्यों में है। लोग नरसिंह भगवान द्वारा हिरण्यकश्यप के वध के बाद भक्त प्रह्लाद की जीत के रूप में ये पर्व मनाते हैं।

छरड़ीं यानि धुलेंडी

छरड़ी यानि होलिका दहन के अगले दिन लोगों का उत्साह अपने चरम पर पहुंच जाता है। इस दिन लोग एक दूसरे पर रंग, अबीर और गुलाल फेंकते हैं और टीका और गले मिलकर एक दूसरे को होली की बधाई देते हैं। छरड़ बनाने के लिए टेसू के फूलों का इस्तेमाल किया जाता है। इसका रंग पानी में घोलने पर नारंगी रंग का हो जाता है। ये रंग ही छरड़ कहलाता है।

महिला होली

कुमाऊं की महिला होली अपने आप में खास है। ये होली बसंत पंचमी के शुरूआत में प्रारंभ हो जाती है, और रंग वाली होली के दूसरे दिन तक चलती रहती है। ये होली भी बैठकर मनाई जाती है। इसमें महिलाओं के हाथ में ढोलक और मंजीरा होते हैं और वो पारंपरिक गीतों के साथ-साथ फिल्मी गीत गाती है। कुमाऊंनी महिलाएं शास्त्रीय गीतों को गाने में माहिर होती है।

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वहीं कुछ महिलाओं शास्त्रीय, स्थानीय और फिल्मी गीतों को मिलाकर फ्यूजन गीत तैयार कर लेती हैं। यहां की महिलाओं ने होली की लुप्त हो रही कला को भी बचाने का प्रयास किया है और होली को फिर से आकर्षण का केंद्र बना दिया है।

हिंदू-मुस्लिम एकता की प्रतीक है कुमाऊं की होली

बता दें कि कुमाऊं की होली गंगा-जमुनी तहजीब की भी प्रतीक है। यहां की सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा में मुस्लिम गायक आते रहे हैं। इन्होंने न केवल यहां की संस्कृति का अध्ययन किया बल्कि होली के गीतों को विस्तार देते हुए इसे उप शास्त्रीय स्वरूप भी प्रदान किया।

मुस्लिम गायकों ने चांचर ताल की रचना की जिसको बैठकी होली में गाया जाता है। इस प्रकार से कह सकते हैं कि मुसलमानों ने भी कुमाऊं की होली को ऊंचाई देने में अपना योगदान दिया है।

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