हरिद्वार। श्रावण मास में कांवड़ के माध्यम से जल-अर्पण करने से अत्याधिक पुण्य फल की प्राप्ति होती है। कांवड़ यात्रा के बाद जल चढ़ाने पर अथवा मान्यता करके जल चढ़ाने पर पुत्र संतान की प्राप्ति होती है। भगवान भोलेनाथ का ध्यान जब हम करते हैं तो श्रावण का महीना, रूद्राभिषेक और कांवड़ का उत्सव आंखों के सामने आता है। लेकिन कांवड़ यात्रा कब शुरू हुई, किसने की, क्या उद्देश्य है। अलग-अलग जगहों की अलग मान्यताएं रही हैं।
ऐसा मानना है कि सर्वप्रथम भगवान परशुराम ने कांवड़ लाकर “पुरा महादेव”, में जो उत्तर प्रदेश प्रांत के बागपत के पास मौजूद है, गढ़मुक्तेश्वर से गंगा जी का जल लाकर उस पुरातन शिवलिंग पर जलाभिषेक, किया था। आज भी उसी परंपरा का अनुपालन करते हुए श्रावण मास में गढ़मुक्तेश्वर, जिसका वर्तमान नाम ब्रजघाट है, से जल लाकर लाखों लोग श्रावण मास में भगवान शिव पर चढ़ाकर अपनी कामनाओं की पूर्ति करते हैं।
उत्तर भारत में भी गंगाजी के किनारे के क्षेत्र के प्रदेशों में कांवड़ का बहुत महत्व है। राजस्थान के मारवाड़ी समाज के लोगों के यहां गंगोत्री, यमुनोत्री, केदारनाथ, बदरीनाथ के तीर्थ पुरोहित जो जल लाते थे और प्रसाद के साथ जल देते थे, उन्हें कांवड़िये कहते थे। ये लोग गोमुख से जल भरकर रामेश्वरम में ले जाकर भगवान शिव का अभिषेक करते थे। यह एक प्रचलित परंपरा थी। लगभग 6 महीने की पैदल यात्रा करके वहां पहुंचा जाता था। इसका पौराणिक तथा सामाजिक दोनों महत्व है। इससे एक तो हिमालय से लेकर दक्षिण तक संपूर्ण देश की संस्कृति में भगवान का संदेश जाता था।
इसके अलावा भिन्न-भिन्न क्षेत्रों की लौकिक और शास्त्रीय परंपराओं के आदान-प्रदान का बोध होता था। परंतु अब इस परंपरा में परिवर्तन आ गया है। अब लोग गंगाजी अथवा मुख्य तीर्थों के पास से बहने वाली जल धाराओं से जल भरकर श्रावण मास में भगवान का जलाभिषेक करते हैं। इस धार्मिक उत्सव की विशेषता यह है कि सभी कांवड़ यात्री केसरिया रंग के वस्त्र धारण करते हैं और बच्चे, बूढ़े, जवान, स्त्री, पुरुष सबको एक ही भाषा में बोल-बम के नारे से संबोधित करते हैं।
हमारे शास्त्रों सहित भारत के समस्त हिंदुओं का विश्वास है कि कांवड़ यात्रा में जहां-जहां से जल भरा जाता है, वह गंगाजी की धारा में से ही लिया जाता है। कांवड़ के माध्यम से जल चढ़ाने से मन्नत के साथ-साथ चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति होती है। हरिद्वार से जल लेकर दिल्ली, पंजाब आदि प्रांतों में करोड़ों यात्री जलाभिषेक करते हैं। यह यात्रा लगभग पूरे श्रावण मास से लेकर शिवरात्रि तक चलती है।
कांवड़ शिव की आराधना का ही एक रूप है। इस यात्रा के जरिए जो शिव की आराधना कर लेता है, वह धन्य हो जाता है। कांवड़ का अर्थ है परात्पर शिव के साथ विहार। अर्थात ब्रह्म यानी परात्पर शिव, जो उनमें रमन करे वह कांवरिया। कांवड को परमात्मा का सर्वश्रेष्ठ वरदान भी कहा गया है।
एक अन्य मीमांसा के अनुसार क का अर्थ जीव और अ का अर्थ विष्णु है, वर अर्थात जीव और सगुण परमात्मा का उत्तम धाम। इसी तरह कां का अर्थ जल माना गया है और आवर का अर्थ उसकी व्यवस्था। जलपूर्ण घटों को व्यवस्थित करके विश्वात्मा शिव को अर्पित कर परमात्मा की व्यवस्था का स्मरण किया जाता है। क का अर्थ सिर भी है, जो सारे अंगों में प्रधान है, वैसे ही शिव के लिए कांवड़ का महत्व है जिससे ज्ञान की श्रेष्ठता का प्रतिपादन होता है। क का अर्थ समीप और आवर का अर्थ सम्यक रूप से धारण करना भी है। जैसे वायु सबको सुख, आनंद देती हुई परम पावन बना देती है वैसे ही साधक अपने वातावरण को पावन बनाए।
इन तमाम अर्थों के साथ कांवड़ यात्रा का उल्लेख एक रूपक के तौर पर भी करते हैं। गंगा शिव की जटाओं से निकली। उसका मूल स्रोत विष्णु के चरण हैं। भगीरथ के तप से प्रसन्न होकर विष्णु ने गंगा से जब पृथ्वी पर जाने के लिए कहा तो वह अपने इष्ट के पैर छूती हुई स्वर्ग से पृथ्वी की ओर चली। वहां उसके वेग को धारण करने के शिव ने अपनी जटाएं खोल दी और गंगा को अपने सिर पर धारण किया। वहां से गंगा सगरपुत्रों का उद्धार करने के लिए बहने लगी।
कांवड़ यात्रा के दौरान साधक या यात्री वही गंगाजल लेकर अभीष्ट शिवालय तक जाते हैं और शिवलिंग का अभिषेक करते हैं। शिवमहिम्न स्तोत्र के रचयिता आचार्य पुष्पदंत के अनुसार यह यात्रा गंगा का शिव के माध्यम से प्रत्यावर्तन है- अभीष्ट मनोरथ पूरा होने के बाद उस अनुग्रह को सादर श्रद्धा पूर्वक वापस करना। कांवर से गंगाजल ले जाने और अभिषेक द्वारा शिव को सौंपने का अनुष्ठान शिव और गंगा की समवेत आराधना भी है।
कांवड़ के व्युत्पत्तिपरक जो अर्थ किए गए हैं, उनमें एक के अनुसार क अक्षर अग्नि का द्योतक है और आवर का अर्थ ठीक से वरण करना। प्रार्थना यह है कि अग्नि अर्थात स्रष्टा, पालक एवं संहारकर्ता परमात्मा हमारा मार्गदर्शक बने और वही हमारे जीवन का लक्ष्य हो तथा हम अपने राष्ट्र और समाज को अपनी शक्ति से सक्षम बनाएं। देवभूमि हिमालय को देवताओं का निवास भी कहा गया है।
शिव भी इसी क्षेत्र कैलास में कहीं रहते हैं। कम से कम श्रद्धालु जन तो यही मानते हैं कि शिव परमात्मा के रूप में तो सर्वव्यापी हैं, कण कण में विराजमान हैं पर पार्थिव रूप में वे इसी क्षेत्र में यहीं रहते हैं। उनसे संबंधित पुराण प्रसिद्ध घटनाओं का रंगमंच यही क्षेत्र रहा है। महाकवि कालिदास ने हिमालय को शिव का प्रतिरूप बताते हुए इसके सांस्कृतिक, भौगोलिक और धार्मिक महत्त्व को रेखांकित किया है।
उनके अनुसार हिमालय को देखें तो समाधि में बैठे महादेव, बर्फ के समान गौर उनका शरीर, चोटियों से बहते नद, नदी ग्लेशियर, झरने उनकी जटाएं, रात में चन्द्रोदय के समय सिर पर स्थित चन्द्रकला, गंगानदी का धरती पर आता अक्स खुद-ब-खुद दिमाग में उभरता जाता है।
शिव भूतनाथ, पशुपतिनाथ, अमरनाथ आदि सब रूपों में कहीं न कहीं जल, मिट्टी, रेत, शिला, फल, पेड़ के रूप में पूजनीय हैं। जल साक्षात् शिव है, तो जल के ही जमे रूप में अमरनाथ हैं। बेल शिववृक्ष है तो मिट्टी में पार्थिव लिंग है। गंगाजल, पारद, पाषाण, धतूराफल आदि सबमें शिव सत्ता मानी गई है।
अतः सब प्राणियों, जड़-जंगम पदार्थों में स्वयं भूतनाथ पशुपतिनाथ की सुगमता और सुलभता ही तो आपको देवाधिदेव महादेव सिद्ध करती है। कांवड़ शिव के उन सभी रूपों को नमन है। कंधे पर गंगा को धारण किए श्रद्धालु इसी आस्था और विश्वास को जीते हैं। यह भी कह सकते हैं कि कांवड़ यात्रा शिव के कल्याणकारी रूप और निष्ठा के नीर से उसके अभिषेक को तीव्र रूप में प्रतिध्वनित करती है।