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रिसता बलूचिस्तान : पाकिस्तान से मुक्त होने की चाहत का दूसरा नाम

Modi 1502 रिसता बलूचिस्तान : पाकिस्तान से मुक्त होने की चाहत का दूसरा नाम

नई दिल्ली। स्वतंत्रता दिवस के अपने भाषण के अंत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा की गई एक सामान्य टिप्पणी ने पाकिस्तान के रिसते बलूचिस्तान के घाव को सबके सामने लाकर रख दिया। भारत लंबे समय से जम्मू एवं कश्मीर में अशांति के लिए पाकिस्तान को जिम्मेदार ठहराता रहा है। अब पाकिस्तान को उसी के अंदाज में जवाब देने की मोदी की रणनीति ने एक ऐसे भानुमति के पिटारे को खोल दिया है जिसके अपने भू-राजनैतिक निहितार्थ हैं और जो भारत की विदेश नीति की दिशा को बदलने का माद्दा रखती है।

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बलूचिस्तान, पाकिस्तान के लिए उतना ही तकलीफ देने वाला रहा है जितना कश्मीर भारत के लिए है। लेकिन, पाकिस्तान के इस सबसे बड़े प्रांत पर दुनिया का ध्यान उस तरह से नहीं गया जिस तरह कश्मीर पर गया है। इसकी एक बड़ी वजह यह है कि इस प्रांत को एक ऐसा ‘ब्लैक होल’ समझा जाता रहा है जहां पत्रकारों को जाने की इजाजत नहीं मिलती। कश्मीर के साथ मामला ऐसा नहीं है। पाकिस्तान वैश्विक मंचों पर कश्मीर का मुद्दा और भारत के इस एकमात्र मुस्लिम बहुल राज्य में मानवाधिकारों के कथित उल्लंघन को उठाता रहा है।

बलूचिस्तान प्रांत क्षेत्रफल के हिसाब से पाकिस्तान में सबसे बड़ा है। इसका क्षेत्रफाल फ्रांस के बराबर है। गैस, सोना, तांबा, तेल, यूरेनियम जैसे संसाधनों से लैस होने के बावजूद यह इलाका विकास में बहुत पीछे है। 1947 में भारत विभाजन के बाद पाकिस्तान अस्तित्व में आया और वह दिन है और आज का दिन है कि इस प्रांत को शांति की एक मुकम्मल सांस नहीं नसीब हुई।पाकिस्तान के कुल क्षेत्रफल का 40 फीसदी हिस्सा बलूचिस्तान में आता है लेकिन देश की कुल जनसंख्या की महज चार फीसदी ही यहां रहती है। बलूचिस्तान के अधिकारों के लिए लड़ने वाले कहते हैं कि बलूचियों की स्वतंत्र और संप्रभु राष्ट्र की आकांक्षा को पाकिस्तानी सुरक्षा बलों द्वारा रौंदे जाने और बलूचियों के संहार के बावजूद दुनिया की निगाह इस पर नहीं गई है।

इस क्षेत्र का इतिहास टूटे हुए वादों, मानवाधिकार उल्लंघन, बेपनाह गरीबी और प्रभावशाली पंजाबियों के दमनकारी शासन की गवाह देता है।
पाकिस्तान का कहना है कि बलूचिस्तान की अशांति के पीछे भारत की खुफिया संस्था रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) का हाथ है। भारत इसे गलत बताता है। ऐतिहासिक रूप से बलूचिस्तान कभी भी उपमहाद्वीप का हिस्सा नहीं रहा। यह ब्रिटिश राज के तहत चार शाही सत्ताओं, कलात, लासबेला, खारन और मकरान को मिलकर बना था। यह क्षेत्र भारत या पाकिस्तान के बजाय अफगानिस्तान और ईरान से अधिक मिलता-जुलता दिखता है। यह आमतौर से माना जाता है कि पाकिस्तान के संस्थापक और प्रथम गवर्नर-जनरल मोहम्मद अली जिन्ना ने अंतिम स्वाधीन बलूच शासक मीर अहमद यार खान को पाकिस्तान में शामिल होने के समझौते पर दस्तखत करने के लिए मजबूर किया था।

इतिहास के कुछ पन्नों में यह भी दर्ज है कि जिन्ना ने पाकिस्तान के अस्तित्व में आने से कुछ पहले ब्रिटिश हुक्मरानों से बलूचिस्तान की आजादी पर सौदा किया था। हालांकि, इस बात को गलत बताने वाले भी मौजूद हैं। 11 अगस्त 1947 की एक शासकीय सूचना से पता चलता है कि पाकिस्तान और इस इलाके के बीच एक समझौता हुआ था। यह तय हुआ था कि पाकिस्तान और खान के बीच रक्षा, विदेश मामले और संचार के मामलों में सहमति तक पहुंचने के लिए चर्चा होगी। इस समझौते के बावजूद पाकिस्तानी सेना 26 मार्च 1948 को बलूचिस्तान के तटीय इलाकों में घुस आई। कुछ दिन बाद कराची में ऐलान किया गया कि खान अपने राज्य के पाकिस्तान में विलय पर राजी हो गए हैं।

इसके बाद जो हुआ, वह रक्तपात, मूल अधिकारों के हनन, हर तरह से वंचित किए जाने और क्षेत्र की आजादी के लिए उठने वाली किसी भी आवाज को बर्बरतापूर्वक कुचले जाने की दास्तान है। पिछले साल जिनेवा में ‘बलूचिस्तान इन द शैडोज’ नाम से कांफ्रेंस हुई थी। कांफ्रेंस के बाद तैयार एक रिपोर्ट में कहा गया था, “बलूचिस्तान में मानवाधिकारों की स्थिति बुरी तरह से खराब हो रही है। नागरिकों को सुरक्षा देने और कानून का राज कायम रखने के बुनियादी कर्तव्य में क्षेत्र की सरकारें नाकाम साबित हुई हैं।”

पाकिस्तान द्वारा संसाधनों की लूट और दमनकारी शासन के खिलाफ बलूची 1948 से अब तक पांच बार कम तीव्रता का सशस्त्र संघर्ष छेड़ चुके हैं। मशहूर बलूच कार्यकर्ता नाएला कादरी ने अप्रैल में आईएएनएस से एक खास मुलाकात में आरोप लगाया था कि ‘राजनैतिक, लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष स्वतंत्रता संघर्ष को दबाने के लिए पाकिस्तान नरंसहार कर रहा है।’ कादरी ने कहा था, “उन्होंने (पाकिस्तान ने) बीते एक दशक में 2 लाख बलूचियों को मार डाला है। 25000 मर्द और औरतें लापता हुई हैं जिनमें पाकिस्तान की सेना का हाथ रहा है। वे लोग (पाकिस्तानी) नरंसहार की पहचान के लिए निर्धारित संयुक्त राष्ट्र के सभी आठ संकेतों पर अमल कर रहे हैं और इसमें अमानवीयकरण, ध्रुवीकरण, विनाश और अस्वीकार भी शामिल हैं।”

 

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