चुनाव तो इंदिरा गांधी भी हारी थीं और संजय गांधी भी हारे थे। तो राहुल अगर अमेठी से हार ही गए तो हायतौबा क्यों? ऐसा कहना आसान है, लेकिन सच यही है कि राहुल की अमेठी की हार कांग्रेस को हिला देने वाली है।
1977 में इंदिरा गांधी रायबरेली सीट से 55,202 मतों से हार गईं थीं। 1977 में ही संजय गांधी अमेठी सीट पर करीब 76 हजार वोटों से हारे थे। इन दो मौकों को छोड़कर नेहरू-गांधी परिवार का कोई भी सदस्य कांग्रेस टिकट पर लड़ते हुए कभी भी चुनाव नहीं हारा था। अब तीसरी हार राहुल गांधी की हुई है। कांग्रेस अध्यक्ष की हार उसी अमेठी में हुई है, जहां इस परिवार को हराने की कोई कम ही कल्पना करता रहा है।
तो क्या राहुल की हार को यह कहकर सामान्य बता दिया जाए कि हारे तो इंदिरा गांधी और संजय गांधी भी थे? और तब तो देश में एक कांग्रेस पार्टी ही थी, जिसकी तूती बोलती थी। और तब इंदिरा और संजय तो जैसे देश की राजनीति के दो ऐसे चेहरे थे, जिनसे टक्कर लेने की कोई सोच भी नहीं सकता था। ये सारे तथ्य तो हैं, लेकिन इन तथ्यों को आधार बनाकर गढ़े गए तर्कों से राहुल की अमेठी में मिली हार को सामान्य नहीं ठहराया जा सकता। सच तो यही है कि अमेठी में राहुल की हार के संकेत और संदेश कांग्रेस पार्टी के लिए इंदिरा और संजय को मिली हार से ज्यादा खतरनाक और गंभीर हैं।
इंदिरा गांधी और संजय गांधी को क्रमश: रायबरेली और अमेठी की जनता ने जो दंड दिया था वह उनकी उन ज्यादतियों के लिए था, जो उन्होंने इमरजेंसी के दौरान ढाए थे। यानी तब उनके खिलाफ वोट करने की एक मुकम्मल वजह थी। पर इस वक्त ऐसा कुछ भी नहीं है। राहुल की यही हार अगर 2014 में हुई होती, तब कुछ तर्कसंगत वजहें गिनाई जा सकती थीं। तब तर्क दिया जा सकता था कि दूसरे कार्यकाल में जिस तरह से मनमोहन सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे यह उसी का नतीजा रहा। तब कहा जा सकता था कि राहुल ने सरकारी अध्यादेश फाड़ कर देश की पूरी सरकार की जो तौहीन की यह उसी की प्रतिक्रिया थी। तब कहा जा सकता था कि कई सीनियर कांग्रेसियों का गुरुर जिस तरह से सिर चढ़कर बोलने लगा था यह उसी का परिणाम है।
लेकिन 2019 में अमेठी में मिली हार की सिर्फ एक ही वजह दिखती है। वह वजह है राहुल की नाकामी। एक सांसद के तौर पर अमेठी की जनता की उम्मीदें पूरी करने में नाकामी। विपक्ष के सबसे बड़े नेता के तौर पर प्रभावशाली भूमिका निभाने में नाकामी। पार्टी नेता के तौर पर मजबूत लीडरशिप और रणनीति पेश करने में नाकामी।
इसी के बाद यह सवाल उठेगा कि खुद की नैया पार न उतार सकने वाले राहुल पूरी पार्टी के खेवनहार कैसे बन पाएंगे? इंदिरा और संजय की हार के बाद कांग्रेस के सामने सबकुछ खत्म हो जाने का अहसास नहीं था। राहुल की अमेठी में हार और यूपी में सिर्फ एक सीट जीत सकने के बाद पार्टी बहुत कुछ खत्म होने के अहसास से जरूर गुजरेगी।
राहुल के नेतृत्व पर सवाल उठेंगे
पार्टी के बुरे प्रदर्शन और अमेठी में अपनी हार के बाद राहुल गांधी ने इस्तीफे की पेशकश की। इस बात के आसार कम ही हैं कि उनकी पेशकश को स्वीकार कर लिया जाए। लेकिन अपने इस्तीफे की पेशकश सोनिया गांधी के सामने कर उन्होंने फिर एक बड़ी गलती कर दी। इससे पार्टी के सिर्फ एक परिवार पर टिके होने की विसंगति फिर से सामने आई। अच्छा होता कि वह ये पेशकश सिर्फ पार्टी के सामने करते और उन्हें फैसला लेने की आजादी देते। हालांकि इसके बाद भी ऐसे आसार कम ही होते कि राहुल का इस्तीफा मंजूर कर लिया जाता, लेकिन कम-से-कम परिवार के आगे महत्वहीन हो रही पार्टी का यश कुछ तो बढ़ता।
प्रियंका भी बन गईं अमेठी की हार में हिस्सेदार
इसी साल 23 जनवरी को सक्रिय राजनीति में आई प्रियंका को यूपी की आधी से ज्यादा सीटों की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। लेकिन राहुल गांधी की इस छोटी बहन ने सबसे ज्यादा वक्त अमेठी को दिया। प्रियंका कम-से-कम 7 बार अमेठी गईं। उनके इन अमेठी दौरों की तस्वीरें और बातें न्यूज चैनल्स पर घंटों दिखाई गईं। प्रियंका ने विरोधी उम्मीदवार स्मृति ईरानी पर अमेठी का मान-मर्यादा से खेलने के आरोप लगाए। प्रियंका के सामने छोटे-छोटे बच्चों ने प्रधानमंत्री के लिए अपशब्द कहे। इन्हीं सबके बीच जब राहुल ने वायनाड की दूसरी सीट चुन ली, तो बीजेपी ने इसे कांग्रेस अध्यक्ष की अमेठी से हार का डर बताया। नतीजों ने बीजेपी के दावे पर मुहर लगाने का काम किया। पर इस पूरे घटनाक्रम में जो एक बात और हुई वह यह कि अमेठी की हार में वहां अपनी अतिसक्रियता की वजह से प्रियंका भी हिस्सेदार बन गईं।
अब इन्हीं चुनावों के दौरान 2022 में यूपी विधानसभा चुनाव की जुटकर तैयारी करने की बात करने वाली प्रियंका गांधी पर भी सवाल होंगे। सवाल होंगे कि अपने भाई की हार टालने में नाकाम रहने वाली नेहरू-गांधी परिवार की ये सबसे युवा राजनेता 2022 के त्रिकोणीय या चतुर्कोणीय (अगर एसपी-बीएसपी अलग हो गई) मुकाबले में कांग्रेस के पाये को प्रदेश में कहां तक टिका पाएगी?
नेहरू-गांधी परिवार के भविष्य पर सवाल
सोनिया गांधी की उम्र और स्वास्थ्य को देखते हुए कांग्रेस को नए नेतृत्व की जरूरत महसूस हुई। पार्टी ने निर्विवाद तरीके से कमान राहुल को सौंप दी। प्रियंका गांधी ने राजनीति में एंट्री का फैसला लिया। सीधे महासचिव के पद से उनके करियर की शुरुआत करा दी गई। प्रियंका की समझ और व्यक्तित्व पर कोई संदेह न भी हो, तो नतीजे देने का दबाव उन पर राहुल से भी ज्यादा होगा। यही नहीं, ये नतीजे उन्हें अगले कुछ महीनों से लेकर एक-दो साल में ही देने होंगे। जब एक के बाद एक कई राज्यों में विधानसभाओं के चुनाव होंगे। राहुल के हिस्से में पहले ही चुनावी नाकामियों की लंबी फेहरिस्त जमा हो चुकी है। जब भाई-बहन की जोड़ी यहां से पार्टी को लेकर आगे बढ़ने की कोशिश करेगी, तो उनके पास वक्त नहीं होगा। क्योंकि वक्त पहले ही निकल चुका है। नेहरू-गांधी परिवार का नेतृत्व अगर वोट दिलाने और चुनाव जिताने की स्थिति में नहीं होगा, तो या तो ‘राजनीतिक श्रद्धालु’ उस चौखट से निकल जाएंगे या फिर आए दिन उसकी अवहेलना-अवमानना करते नजर आएंगे। -टाइम्सनाउ हिंन्दी से साभार
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