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आखिर क्यों मुहर्रम का मातम मनाते हैं शिया, जाने कर्बला का पूरा सच

मुहर्रम का मातम

नई दिल्ली।  मुस्लिम धर्म में मुहर्रम का महीना चल रहा है और जब बात मुहर्रम की होती है तो सबसे पहले जिक्र कर्बला का किया जाता है आज का दिन मुहर्रम का सबसे अहम दिन रोज-ए-आशुरा है। आज से लगभग 1400 साल पहले तारीख-ए-इस्लाम में कर्बला की जंग हुई थी। ये जंग जुल्म के खिलाफ इंसाफ के लिए लड़ी गई थी।

मुहर्रम का मातम
मुहर्रम का मातम

जुल्म के खिलाफ इंसाफ के लिए लड़ी गई इस जंग में पैगंबर मोहम्मद के नवासे इमाम हुसैन और उनके 72 साथी शहीद हो गए थे। इसलिए कहा जाता है हर कर्बला के बाद इस्लाम जिंदा होता है। आज हम आपको विशेष रुप से बताने जा रहे हैं कि कर्बला की जंग में आखिर क्या हुआ था। इस्लाम की जहां से शुरुआत हुई, मदीना से कुछ दूरी पर मुआविया नामक शासक का दौर था।

मुआविया के इंतकाल के बाद शाही वारिस के रूप में उनके बेटे यजीद को शाही गद्दी पर बैठने का मौका मिला। लोगों के दिलों में बादशाह यजीद का इतना खौफ था कि लोग यजीद के नाम से ही कांप उठते थे। पैगंबर मोहम्मद की वफात के बाद यजीद इस्लाम को अपने तरीके से चलाना चाहता था।

जिसके लिए यजीद ने पैगंबर मोहम्मद के नवासे इमाम हुसैन को उसके मुताबिक चलने को कहा और खुद को उनके खलीफे के रूप में स्वीकार करने के लिए कहा। यजीद को लगता था कि अगर इमाम हुसैन उसे अपना खलीफा मान लेंगे तो इस्लाम और इस्लाम के मानने वालों पर वह राज कर सकेगा।

मुहर्रम की दूसरी तारीख

मुहर्रम की दूसरी तारीख को जब हुसैन कर्बला पहुंचे तो उस समय उनके साथ एक छोटा सा लश्कर था, जिसमें औरतों से लेकर छोटे बच्चों तक कुल मिलाकर 72 लोग शामिल थे। इसी दौरान कर्बला के पास यजीद ने इमाम हुसैन के काफिले को घेर लिया और खुद को खलीफा मानने के लिए उन्हें मजबूर किया। लेकिन हुसैन ने यजीद को खलीफा मानने से इंकार कर दिया।

हुसैन के कर्बला पहुंचने के बाद मुहर्रम की 7 तारीख को इमाम हुसैन के पास खाने पीने की जितनी भी चीजें थीं वे सभी खत्म हो चुकीं थीं। ये देखकर यजीद ने हुसैन के लश्कर का पानी भी बंद कर दिया। मुहर्रम की 7 तारीख से 10 तारीख तक इमाम हुसैन और उनके काफिले के लोग भूखे प्यासे रहे। लेकिन इमाम हुसैन सब्र से काम लेते रहे और जंग को टालते रहे।

हर ढलते दिन के साथ यजीद के जुल्म बढ़ते ही जा रहे थे। ये देखने के बाद इमाम हुसैन ने अपने काफिले में मौजूद लोगों को वहां से चले जाने के लिए कहा। लेकिन कोई भी हुसैन को छोड़कर वहां से नहीं गया। मुहर्रम की 10 तारीख को यजीद की फौज ने हुसैन और उनके साथियों पर हमला कर दिया। यजीद बहुत ताकतवर था। यजीद के पास हथियार, खंजर, तलवारें थीं। जबकि हुसैन के काफिले में सिर्फ 72 लोग ही थे।

इसी जंग के दौरान मुहर्रम की 10 तारीख को यजीद की फौज ने इमाम हुसैन और उनके साथियों का बड़ी बेरहमी से कत्ल कर दिया। उनमें हुसैन के 6 महीने के बेटे अली असगर, 18 साल के अली अकबर और 7 साल के उनके भतीजे कासिम (हसन के बेटे) भी शहीद हो गए थे। यही वजह है कि मुहर्रम की 10 तारीख सबसे अहम होती है, जिसे रोज-ए-आशुरा कहते हैं।

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