नई दिल्ली। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या की दोबारा जांच करने की मांग करने वाली याचिका को सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया है। न्यायमूर्ति एमए बोबड़े और न्यायमूर्ति एल नागेश्वर राव की पीठ ने याचिका पर सुनवाई करते हुए इसे खारिज कर दिया है। इस याचिका को गैर सरकारी संगठन अभिनव भारत की ओर से मुंबई के पंकज फडनीस ने दायर की थी। दरअसल कोर्ट ने इस मामले की जांच नरे सिरे से कराने के लिए दायर याचिका पर छह मार्च को सुनवाई की थी। कोर्ट ने उस दौरान फैसला सुरक्षित रखते हुए स्पष्ट किया था कि वे भावनाओं से प्रभावित नहीं होगा, बल्कि याचिका पर फैसला करते समय कानूनी दलीलों पर भरोसा करेगा।
बता दें कि याचिका दायर करने वाले पंकज ने पूरे मामले पर पर्दा डालने के लिए इतिहास की सबसे बड़ी घटना होने का दावा किया था। कोर्ट ने कहा कि इस मुकदमे पर फिर से सुनवाई कराने के लिए याचिका अकादमिक शोध पर आधारित है और ये सालों पहले हुए किसी मामले को फिर से खोलने का आधार बन सकती है। जज बोबड़े और राव की पीठ पर सुनवाई करते हुए कहा था कि इस पर फैसला बाद में सुनाया जाएगा। पीठ ने कहा कि अब इस घटना को काफी समय हो चुका है इसलिए हम इसे फिर से खोलना सही नहीं समझते। क्योंकि ऐसा लगता है कि लोगों को इसके बारे में पहले से ही मालूम है।
कोर्ट ने पंकज से कहा कि आप लोगों के दिलों में संदेह पैदा कर रहे हैं। हकीकत तो ये है कि जिन लोगों ने हत्या की थी उनकी पहचान हो चुकी है और उन्हें फांसी दी जा चुकी है।याचिकाकर्ता ने नाथूराम गोड्से और नारायण आप्टे की दोषसिद्धि के मामले में विभिन्न अदालतों की तीन बुलेट के कथानक पर भरोसा करने पर भी सवाल उठाये थे। याचिका में कहा गया था कि इस तथ्य की जांच होनी चाहिए कि क्या वहां चौथी बुलेट भी थी जो गोड्से के अलावा किसी अन्य ने दागी थी। अदालत ने इस मामले में वरिष्ठ अधिवक्ता अमरेन्द्र शरण को न्याय मित्र नियुक्त किया था।
अमरेन्द्र शरण ने कहा कि महात्मा गांधी हत्याकांड की फिर से सुनवाई की आवश्यकता नहीं है क्योंकि इस मामले में फैसला अंतिम रूप प्राप्त कर चुका है और इस घटना के लिये दोषी व्यक्ति अब जीवित नहीं है। गौरतलब है कि राष्ट्रपिता और स्वतंत्रता सैनानी महात्मा गांधी की 30 जनवरी, 1948 को राजधानी में हिन्दू राष्ट्रवाद के हिमायती दक्षिणपंथी नाथूराम गोड्से ने काफी नजदीक से गोली मार कर हत्या कर दी थी। इस हत्याकांड में गोडसे और आप्टे को15 नवंबर, 1949 को फांसी दे दी गयी थी जबकि सबूतों के अभाव में सावरकर को संदेह का लाभ दे दिया गया था।