Lahori Express: लाहौरी एक्सप्रेस ने आजादी की लड़ाई से लेकर बंटवारे का दौर देखा है। साथ में इस एक्सप्रेस का देहरादून से बड़ा ही पुराना नाता है। अंग्रेजों के दौर में जब पाकिस्तान, भारत का हिस्सा था तब यह ट्रेन देहरादून से लाहौर तक चलती थी।
लेकिन, अब लाहौरी एक्सप्रेस भले ही अब पाकिस्तान के लाहौर न जाती हो। पर अभी भी इस रेलगाड़ी के बारे में दोनों मुल्खों के लोग भली भांति जानते हैं। इस ट्रेन ने न सिर्फ दोनों देशों के बंटवारे को देखा है, बल्कि बंटवारे से हुए दर्द को भी देखा है।
लाहौरी एक्सप्रेस 1947 से पहले की ट्रेन
19वीं सदी का शुरुआती दौर जब नॉर्दन रेलवे के विस्तारीकरण की प्रक्रिया चल रही थी, तब मुरादाबाद मंडल के अंतर्गत 1899 में देहरादून रेलवे स्टेशन की नींव रखी गई थी। इसके बाद संयुक्त भारत वर्ष को जोड़ने के लिए सभी धार्मिक और आर्थिक पहलुओं को ध्यान में रखते हुए भारतीय रेलवे विभाग के अधिकारियों ने उत्तराखंड (जो उस समय उत्तर प्रदेश का हिस्सा था) को रेल से जोड़ने की योजना बनाई।
इसके तहत उत्तराखंड की धार्मिक महत्ता, चारधाम और हरिद्वार की मान्यता को देखा गया, जिसके बाद देहरादून और हरिद्वार को रेलगाड़ियों से जोड़ने की योजना बनाई गई। वहीं, पूरे उत्तर भारत को लाहौर से जोड़ने के लिए वर्ष 1906-07 में एक रेलगाड़ी चलाई गई, जिसका नाम लाहौरी एक्सप्रेस था। लाहौरी एक्सप्रेस तत्कालीन पंजाब और सिंध के मुल्तान, सरगोधा में स्थित बन्नू बिरादरी की धर्मशालाओं के लिए अनाज पहुंचाया जाता था। आज भी हरिद्वार में बन्नू बिरादरी की धर्मशालाएं मौजूद हैं, जो इस बात की गवाह हैं।
देहरादून और आसपास के काफी लोग बंटवारे से पहले लाहौर पढ़ने जाते थे। वह भी इसी गाड़ी से सफर किया करते थे। लाहौरी एक्सप्रेस का नंबर 143631 देहरादून-लाहौर होता। हालांकि, ये अब कागजों पर नहीं रहा। सातों दिन यह ट्रेन रात 19:05 पर देहरादून से अमृतसर के लिए चलती थी। विभाजन से पहले यह ट्रेन अपने मुसाफिरों के साथ लाहौर तक जाती थी। इसके साथ ही ब्रिटिश फौज भी लैंसडाउन से रुड़की आती थी। फिर देहरादून-लाहौर एक्सप्रेस के जरिए लाहौर के लिए रवाना होती थी। 1947 से पहले तत्कालीन पंजाब और सिंध के गुजरोवाला, लाहौर, क्वेटा, सरगोधा, मुल्तान के लोग इसी गाड़ी से हरिद्वार आते थे. देहरादून से चलने वाली लाहौरी एक्सप्रेस का बेहद रोचक इतिहास है।
लाहौरी एक्सप्रेस को फूल गाड़ी कहते थे लोग
1906-07 शुरू हुई इस रेलगाड़ी से उस वक्त के कई सामाजिक और आर्थिक पहलु भी जुड़े हुए थे. वरिष्ठ पत्रकार बताते हैं कि बंटवारे से पहले संयुक्त भारत वर्ष के पंजाब सिंध प्रांत के एक कस्बे में हिंदू रहते थे। ये लोग लंबे चौड़े और अपने धर्म के प्रति बेहद आस्थावान हुआ करते थे। उस समय वो लोग लाहौरी एक्सप्रेस को फूल वाली गाड़ी कहा करते थे। तत्कालीन पंजाब और सिंध के लोग इसी ट्रेन में अस्थियों का विसर्जन करने के लिए आया करते थे।
बंटवारे के दिन इस तरफ ही रह गई लाहौरी एक्सप्रेस
वर्ष 1947 में ब्रिटिश राज में भारत के अंतिम वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन ने देश के बंटवारे का एलान किया। देश में दंगे हो रहे थे। वहीं, तीन जून का यह दिन लाहौरी एक्सप्रेस के लिए भी एक काला दिन था। क्योंकि बंटवारे के दिन से पहले की रात ट्रेन लाहौर पहुंची थी। लाहौरी एक्सप्रेस सुबह जब लाहौर से निकली तो उसमें बड़ी संख्या में रिफ्यूजी के साथ-साथ लोगों की लाशें भी भारत की सीमा में आईं। वहीं, इसी शाम जो रेलगाड़ी लाहौर तक जानी थी, उसे अमृतसर में ही रोक दिया गया। इस तरह से लाहौरी का सफर अब अधूरा रह गया।
दिलों से लाहौरी नाम मिटाना मुश्किल
वर्तमान में देहरादून रेलवे स्टेशन के नवीनीकरण और आधुनिकीकरण के बाद कई सारी चीजें बदल गईं, जिसका लाहौरी एक्सप्रेस पर भी असर पड़ा है। अब रेलवे स्टेशन के कागजों में इसका नाम देहरादून-अमृतसर एक्सप्रेस कर दिया गया है। लाहौरी एक्सप्रेस का नंबर 143631 देहरादून-लाहौरी होता था। उसे भी बदल कर 04664 देहरादून- अमृतसर एक्सप्रेस कर दिया गया है। सब कुछ बदलने के बाद भी लोगों के दिलों से लाहौरी नाम मिटाना मुश्किल है।