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जानिए बंटवारे को लेकर बापू ने क्यों किया था उपवास !

बापू का उपवास

नई दिल्ली: देश आजादी की 72वीं सलगिरह मनाने जा  रहा है। दिल्ली से लेकर देश के दूर-दराज तक के इलाकों में तिरंगा फहराया जा चुका है। आइए इस मौके पर यह जानते हैं कि अहिंसा के पूजारी और अजादी की लड़ाई के मुख्य नायक आजादी की पहली सुबह और उससे एक रात पहले क्या कर रहे थे। महात्मा गांधी ने इस देश को आजाद करवाने के लिए लड़ी जाने वाली जिस लड़ाई का नेतृत्व किया था उसका अंत 15 अगस्त 1947 को हुआ।

 

बापू का उपवास जानिए बंटवारे को लेकर बापू ने क्यों किया था उपवास !

 

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देश घोषित तौर पर आजाद हुआ। आजाद मुल्क के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने लाल किले से तिरंगा फराया। जनता सड़कों पर थी। लोग आजादी की पहली सुबह में झुम रहे थे। चारों तरफ एक खुशी का माहौल था लेकिन महात्मा गांधी इनसब से दूर कलकत्ता में थे और आजादी के साथ हुए देश के बंटवारे और इस वजह से हो रही हिंदू-मुस्लिम दंगों की वजह पीड़ा में थे।

 

हिंदू-मुस्लिम दंगों की वजह से और बंटवारे की शर्त पर मिली आजादी की वजह से व्यथित गांधी दिल्ली में हो रहे समारोह से दूर रहे। कांग्रेस के कुछ वरिष्ठ नेता उन्हें मनाने और दिल्ली लाने के लिए बंगाल गए लेकिन उन्होंने सबको वापिस लौटा दिया था। आजादी की पहली सुबह गांधी के लिए उपवास के साथ शुरू हुई थी। सुबह-सुबह उन्होंने चरखा कातते हुए कुछ पत्रों के जवाब लिखवाए थे। इन पत्रों में उन्होंने चरखा कातने को ही उत्सव का नाम दिया था।

 

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गांधी देश में फैले हिंदू-मुस्लिम काफी दुखी थे। आजादी मिलने के कुछ समय पहले ही उनका और नेहरू का मतभेद सामने आ चुका था। नेहरू उनकी सुन नहीं रहे थे। महान समाजवादी नेता डॉ. राम मनोहर लोहिया की किताब ‘भारत विभाजन के गुनहगार’ में इस बात का जिक्र आता है कि पंडित जवाहर लाल नेहरू और सरदार वल्लभ भाई पटेल ने महात्मा गांधी को बंटवारे के बारे में पर्याप्त जानकारी नहीं दी थी।

 

किताब में लोहिया कांग्रेस कार्यकारिणी समिति की उस बैठक का विस्तार से जिक्र करते हैं जिसने देश की विभाजन योजना को स्वीकृति दी। लोहिया के मुताबिक इस बैठक में गांधी ने नेहरू और पटेल से शिकायती लहजे में कहा था कि उन्हें बंटवारे के बारे में सही जानकारी नहीं दी गई। इसके जवाब में नेहरू ने महात्मा गांधी की बात को बीच में ही काटते हुए कहा था कि उन्होंने, उन्हें बराबर सूचना दी थी।

 

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लोहिया लिखते हैं, ‘गांधी ने हल्की शिकायत की मुद्रा में श्री नेहरू और सरदार पटेल से कहा था कि उन्हें बंटवारे के बारे में सूचना नहीं दी गई और इसके पहले कि गांधी जी अपनी बात पूरी कह पाते, श्री नेहरू ने तनिक आवेश में आकर बीच में उन्हें टोका और कहा कि उनको वो पूरी जानकारी बराबर देते रहे’।

 

13 जनवरी, 1948 को उन्होंने आमरण अनशन शुरू कर दिया। नेहरू, ‘द स्टेट्समैन’ के पूर्व संपादक आर्थर मूर और हजारों अन्य लोग गांधी के साथ अनशन पर बैठ गए, जिसमें हिंदुओं और सिखों की एक बड़ी तदाद थी और उनमें से कई तो पाकिस्तान से आये शरणार्थी थे। 12 जनवरी को महात्मा गांधी की प्रार्थना सभा में एक लिखित भाषण पढ़कर सुनाया गया, क्योंकि गांधी ने मौन धारण कर रखा था।“कोई भी इंसान जो पवित्र है, अपनी जान से ज्यादा कीमती चीज कुर्बान नहीं कर सकता। मैं आशा करता हूं कि मुझमें उपवास करने लायक पवित्रता हो।

 

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उपवास कल सुबह (मंगलवार) पहले खाने के बाद शुरू होगा। उपवास का अरसा अनिश्चित है। नमक या खट्टे नींबू के साथ या इन चीजों के बगैर पानी पीने की छूट मैं रखूंगा। तब मेरा उपवास छूटेगा जब मुझे यकीन हो जाएगा कि सब कौमों के दिल मिल गए हैं और वह बाहर के दबाव के कारण नहीं, बल्कि अपना धर्म समझने के कारण ऐसा कर रहे हैं।”इस अनशन का असर चमत्कारिक था।

 

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दिल्ली में जगह-जगह गांधी के समर्थन में लोग जुटने लगे। 15 जनवरी, 1948 को हुए एक सार्वजनिक सभा में करोल बाग के निवासियों ने गांधीजी को विश्वास दिलाया कि वे उनके आदर्शों में आस्था रखते हैं और उन्होंने एक शांति ब्रिगेड बनाकर घर-घर जाकर अभियान चलाया। श्रमिकों की एक सभा में, जहां रेलवे, प्रेस आदि के प्रतिनिधि मौजूद थे, ये संकल्प लिया गया कि विभिन्न समुदायों के बीच अच्छे संबंध स्थापित करने के काम में वे तुरंत जुट जाएंगे। इस सभा को हुमायूं कबीर ने भी संबोधित किया था। प्रिंसिपल एनवी थडानी की अध्यक्षता में दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षकों और छात्रों की एक बैठक हुई और प्रस्ताव पास किया गया कि शहर में साम्प्रादायिक सौहार्द स्थापित करने के लिए वे अपना योगदान देंगे।

 

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नेहरू पार्क में हुई बैठक में नागरिकों से अनुशासित रहने की अपील की गई।बिड़ला हाउस में ही 17 जनवरी को नेहरू ने अपने सार्वजनिक भाषण में कहा, “जब से मुझे महात्मा गांधी के उपवास पर जाने की जानकारी मिली है, न मैंने उन्हें उपवास न करने के लिए कहा है और न इस पर पुनर्विचार करने के लिए, क्योंकि मैं जानता हूं कि वे क्या चाहते हैं। ये अवाम पर है कि वह अपने कर्तव्य का पालन ठीक से करे और केवल तब ही उनको उपवास बंद करने के लिए राजी किया जा सकता है।”विभिन्न संगठनों के 100 से ज्यादा प्रतिनिधि, जिनमें हिंदू महासभा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जमायते-उलेमा के सदस्यों के अलावा कई अन्य लोग थे, 18 जनवरी 1948 को सुबह 11.30 बजे गांधीजी से मिले और शांति के लिए गांधीजी ने जो शर्ते रखी थीं, उसे स्वीकार किया और ‘शांति शपथ’ प्रस्तुत किया।

 

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इसके बाद गांधीजी ने उपवास के अंत की घोषणा की। उसी दिन एक शांति कमेटी की स्थापना की गई, जिसमें हिंदू, सिख, मुसलमान और अन्य धार्मिक मतों और संगठनों के 130 प्रतिनिधि शामिल थे। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, जो इस शांति कमेटी के आयोजक थे, ने गांधीजी को आश्वासन दिया कि अल्पसंख्यकों के खिलाफ किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाएगा, आर्थिक भी नहीं। दिल्ली की मस्जिदें मुसलमानों को वापस कर दी जाएंगी और पाकिस्तान चले गए मुसलमान अगर वापस आना चाहें तो उन्हें पूरी सुविधा प्रदान की जाएगी।

 

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ख्वाजा कुतुबद्दीन की दरगाह में उर्स का मेला भी हर साल की तरह लगेगा और मुसलमानों के धार्मिक उत्सवों में किसी भी किस्म का अवरोध नहीं आने दिया जाएगा। साम्प्रदायिक एकता स्थापित करने के उद्देश्य से प्रेरित गांधीजी का ये अंतिम उपवास पांच दिनों तक चला, जिसकी वजह से मुसलमान अपने घरों को लौटने लगे थे।गांधी की हत्या की योजना भी इसी बीच तैयार हो रही थी। 20 जनवरी, 1948 को बिड़ला हाउस में प्रार्थना सभा के दौरान गांधी की हत्या का असफल प्रयास किया गया और 10 दिन बाद उनकी हत्या कर दी गई।

 

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सफल और असफल दोनों प्रयास हिंदु कट्टरपंथियों के थे। लेकिन, उनकी हत्या से वह हो गया जो उनके अनशन से भी नही हो पाया था, मुसलमानों के लिए ‘दुनिया ही बदल गई।’ हिंदु-मुस्लिम हिंसा पूर्णतः समाप्त हो गई थी। लोगों को डर था कि देश में सेकुलर तत्व कमजोर हो जाएंगे, लेकिन हुआ इसका उलटा – सरकार को मजबूर होकर साम्प्रदायिक शक्तियों और संगठनों के खिलाफ कड़ा रुख अख्तियार करना पड़ा।

 

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लेखकों ने गांधी की कई राजनीतिक गतिविधियों के लिए उनकी आलोचना की हैं। वर्गीय दृष्टि से गांधी का मूल्यांकन करते हुए लोगों ने उन्हें संघर्ष को समन्वय की दिशा देने की कोशिश करने वाले शासक वर्ग के प्रतिनिधि के तौर पर भी देखा है। लेकिन, साम्प्रदायिकता के मसले पर गांधी बमुश्किल ही किसी समझौते के लिए तैयार दिखते हैं। इस देश की आबोहवा में साम्प्रदायिक डर का एक ऐसा रंग घुला हुआ है जो जब-तब फैल जाता है और कई बार ये आत्मरक्षा की जगह आत्मग्लानि की चेतना पैदा करता है। कवियों के कवि शमशेर बहादुर सिंह ने कभी ’निराला’ के लिए लिखा था – ‘भूलकर जब राह- जब-जब राह…भटका मैं/तुम्हीं झलके, हे महाकवि।’ साम्प्रदायिकता के खिलाफ गांधी के अथक अभियान के इस बेशकीमती उदाहरण को अक्सर अनदेखा करता हुआ देश बहुत निराश करता है।

 

By: Ritu Raj

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