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एक ऐसी वीरागंना, जिसने इतिहास के पन्नों में सुनहरे अक्षरों से छोडी छाप, आइए जानें कौन है ये

60826 pmkqwiwghs 1511091567 एक ऐसी वीरागंना, जिसने इतिहास के पन्नों में सुनहरे अक्षरों से छोडी छाप, आइए जानें कौन है ये

इतिहास का रानी लक्ष्मीबाई एक ऐसा नाम है, जिसे शायद ही कोई व्यक्ति न जानता हो। लक्ष्मीबाई एक महान रानी होने के साथ-साथ एक स्वतंत्रता संग्रामी थी। जिन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ अपनी आवाज उठाई थी और अपनी आखिरी सांसों तक अंग्रेजों के साथ मुकाबला किया था। रानी मणिकर्णिका की बहादुरी की वजह से ही अंग्रेजी हुकूमत की नींव हिल गई थी और लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों द्वारा बनाए गए नियमों का खुलकर विरोध किया था। इतिहास के पन्नों में सुनहरे अक्षरों में प्रसिद्ध हो गया। आइए जानें रानी लक्ष्मीबाई के बारे में, ये कौन थी और इनके जीवन से जुड़ी कुछ महत्वपूर्ण जानकारी :-

रानी लक्ष्मीबाई का परिचय
नाम: लक्ष्मीबाई नेवलेकर
बचपन का नाम: मणिकर्णिका ताम्बे [ मनु ]
अन्य नाम: झांसी की रानी, रानी लक्ष्मीबाई
जन्म स्थान : 19 नवम्बर 1828, वाराणसी, उत्तर प्रदेश
मृत्यु स्थान : 18 जून 1858, कोटा की सराय, ग्वालियर
राष्ट्रीयता: भारतीय
पिता का नाम: मोरोपंत तांबे
मां का नाम: भागीरथी
पति का नाम: झांसी नरेश महाराजा गंगाधर रावनेवालकर
क्यों प्रसिद्ध हैं : 1857 के प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम की वीरांगना

रानी लक्ष्मीबाई का जन्म
इनका जन्म पुणे शहर में सन् 1828 में हुआ था। जन्म के वक्त इनका नाम मणिकर्णिका रखा गया था। लेकिन विवाह के बाद इनका नाम बदलकर रानी लक्ष्मीबाई रख दिया गया। इनके पिता का नाम मोरोपंत तांबे था और वो राज दरबार में एक सलाहकार हुआ करते थे। इनकी मां का नाम भागीरथी था। ऐसा कहा जाता है कि जब लक्ष्मीबाई बेहद ही छोटी थी उस वक्त इनकी मां का निधन हो गया था। जिसके बाद लक्ष्मीबाई को उनके पिता ने अकेले ही पाला था।

रानी लक्ष्मीबाई का बचपन
रानी का बचपन उसके नाना के घर में बीता, बचपन में ही मनु के मन में स्वतंत्रता की चिंगारी सुलग चुकी थी। बचपन में मनुबाई अक्सर नाना साहेब के साथ खेला करती थी जो की बाजीराव पेशवा के पुत्र थे। मनु को उनके नटखट स्वभाव के कारण छबीली के नाम से भी पुकारा जाता था। बचपन में छबीली नाना साहेब के साथ अधिकतर मर्दाना खेल खेलती थी, उसे मर्दाना खेलो में बहुत अधिक रुचि थी। मनु बचपन से ही पुरुष मंडली और बालको के साथ रहती थी। उसका अधिकतर समय लड़ाई के मैदान में गुजरता था। तीर चलाना, घुड़सवारी करना, बछ-भाले फेंकना, नकली युद्ध करना, शिकार करना, सैन्य घेरना , दुर्ग तोड़ना आदि उसके प्रिय खेल होते थे। मनु नाना साहेब के साथ राजकुमारों जैसे वस्त्र पहनकर व्यूह – रचना करने में अधिक रुचि लिया करती थी।

लक्ष्मी बाई की शिक्षा
मणिकर्णिका ( मनुबाई ) की शिक्षा घर पर ही पूरी हुई थी। यह उल्लेखनीय हैं कि मोरोपंत तांबे पेशवा बाजीराव के यहां कार्य करते थे , इसलिए मनु को अन्य महिलाओं के मुकाबले ज्यादा खुला वातावरण मिला। मनु के गुरु का नाम तात्या टोपे था। तात्या टोपे ने ही पेशवा के पुत्र के साथ साथ मनु को प्रशिक्षण दिया। तात्या टोपे मनु के प्रशिक्षक के साथ साथ उसके सलाकार भी बने, मनु ने बचपन में ही तात्या टोपे से घुड़सवारी, निशानेबाजी, बछ – भाले फेंकना, नकली युद्ध करना, शिकार करना, तलवारबाजी आदि का प्रशिक्षण ग्रहण कर लिया था। शीघ्र ही, मणिकर्णिका अपने साहस, प्रतिभा और शक्ति के कारण शास्त्र – विद्या और शस्त्र – विद्या दोनों में ही अन्य बालको के मुकाबले बहुत निपुण और कुशल हो गई।

रानी लक्ष्मीबाई का विवाह (Rani Lakshmi Bai)
मणिकर्णिका का विवाह सन् 1842 में झांसी के महाराजा राजा गंगाधर राव के संग हुआ था। शादी के बाद रानी मणिकर्णिका का नाम बदलकर लक्ष्मीबाई रख दिया गया। शादी के 9 सालों बाद यानी वर्ष 1851 में लक्ष्मीबाई ने एक बेटे को जन्म दिया। लेकिन जन्म होने के चार महीने के बाद ही उनके बेटे की मौत हो गई थी। इसके बाद लक्ष्मीबाई और उनके पति ने दामोदर राव को गोद ले लिया था और उसे अपना उत्तराधिकारी बना लिया था। दो साल बाद महाराजा गंगाधर राव की तबीयत बेहद ही खराब हो गई थी और इनकी मृत्यु हो गई थी। इनकी मृत्यु होते ही झांसी की सारी जिम्मदारी रानी लक्ष्मी बाई के ऊपर आ गई।

संघर्ष की शुरुआत
18 साल की आयु में ही रानी लक्ष्मी बाई ने अपने राज्य को अच्छे से संभाल लिया था। भारत के अधिकतर क्षेत्रों पर राजाओं का कब्जा हुआ करता था। इन क्षेत्रों पर अपना कब्जा करने के लिए अंग्रेजों ने उस समय एक नया कानून बनाया। जिसके तहत जिन राजाओं की संतान नहीं थी उन राजाओं से उनका राज्य छीन लिया जा रहा था। लक्ष्मीबाई की भी खुद की संतान नहीं थी और गोद ली गई संतान को ब्रिटिश सरकार ने उनका उत्तराधिकारी मानने से मना कर लिया था।

ब्रिटिश सरकार चाहती थी कि वो इस कानून की मदद से झांसी राज्य पर कब्जा कर ले। जिसके बाद ब्रिटिश सरकार ने रानी लक्ष्मीबाई को झांसी का किला छोड़ने का आदेश दिया और राज्य के बदले ब्रिटिश सरकार ने रानी लक्ष्मीबाई को हर साल 60,000 की पेंशन देने का प्रस्ताव रखा। लेकिन रानी लक्ष्मी बाई ने इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया और अपना राज्य छोड़ने से मना कर दिया। लक्ष्मीबाई के मना करने के बाद ब्रिटिश सरकार ने झांसी पर हमला करने की योजना बनाई।

लक्ष्मीबाई ने ब्रिटिश सरकार से मुकाबला करने के लिए अपनी एक सेना बनाई जिसमें 14,000 सिपाही थे। साल 1858 में ब्रिटिश सेना ने झांसी पर हमला कर दिया और ये युद्ध दो सप्ताह तक चलता रहा। इस युद्ध में लक्ष्मीबाई की सेना हार गई और रानी मणिकर्णिका ब्रिटिश सेना को झांसा देकर अपने बेटे और कुछ साथियों के साथ झांसी से भाग गई। रानी मणिकर्णिका अपने घोड़े में सवार होकर अपने बेटे और साथियों के साथ ग्वालियर चली गईं।

17 जून 1858 को हुआ निधन
ग्वालियर जाकर रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों के खिलाफ अपना युद्ध जारी रखा। वहीं, जब अंग्रेजों को लक्ष्मीबाई के ग्वालियर में होने का पता चला तो ब्रिटिश सेना ने ग्वालियर में हमला कर दिया। लक्ष्मीबाई ने हिम्मत के साथ ब्रिटिश सेना का सामना किया और 17 जून 1858 को अंग्रेजों के साथ युद्ध करते हुए रानी मणिकर्णिका वीर गति को प्राप्त हो गई। लक्ष्मीबाई ने खुद को अंग्रेजों के हाथ नहीं लगने दिया और वो अपने बेटे और घोड़े के साथ आग में कूद गई और इस तरह से लक्ष्मीबाई की कहानी सदा के लिए अमर हो गई।

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