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जानिए क्या थी सरदार पटेल की देशी रियासतों के विलय में भूमिका ?

कैसे हुआ देशी रियासतों का विलय जानिए क्या थी सरदार पटेल की देशी रियासतों के विलय में भूमिका ?

नई दिल्ली: स्वतंत्र भारत के पहले तीन वर्ष सरदार पटेल उप-प्रधानमंत्री, गृह मंत्री, सूचना मंत्री और राज्य मंत्री रहे। इस सबसे भी बढ़कर उनकी ख्याति भारत के रजवाड़ों को शान्तिपूर्ण तरीक़े से भारतीय संघ में शामिल करने तथा भारत के राजनीतिक एकीकरण के कारण है। 5 जुलाई, 1947 को सरदार पटेल ने रियासतों के प्रति नीति को स्पष्ट करते हुए कहा कि- “रियासतों को तीन विषयों ‘सुरक्षा’, ‘विदेश’ तथा ‘संचार व्यवस्था’ के आधार पर भारतीय संघ में शामिल किया जाएगा।” धीरे-धीरे बहुत-सी देसी रियासतों के शासक भोपाल के नवाब से अलग हो गये और इस तरह नवस्थापित रियासती विभाग की योजना को सफलता मिली।

सरदार पटेल की देशी रियासतों के विलय में भूमिका
सरदार पटेल की देशी रियासतों के विलय में भूमिका

जूनागढ़ ने किया था विरोध

भारत के तत्कालीन गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने भारतीय संघ में उन रियासतों का विलय किया, जो स्वयं में संप्रभुता प्राप्त थीं। उनका अलग झंडा और अलग शासक था। सरदार पटेल ने आज़ादी के ठीक पूर्व (संक्रमण काल में) ही पी.वी. मेनन के साथ मिलकर कई देसी राज्यों को भारत में मिलाने के लिये कार्य आरम्भ कर दिया था। पटेल और मेनन ने देसी राजाओं को बहुत समझाया कि उन्हें स्वायत्तता देना सम्भव नहीं होगा। इसके परिणामस्वरूप तीन रियासतें- हैदराबाद, कश्मीर और जूनागढ़ को छोडकर शेष सभी राजवाड़ों ने स्वेच्छा से भारत में विलय का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। 15 अगस्त, 1947 तक हैदराबाद, कश्मीर और जूनागढ़ को छोड़कर शेष भारतीय रियासतें ‘भारत संघ’ में सम्मिलित हो चुकी थीं, जो भारतीय इतिहास की एक बड़ी उपलब्धि थी।

भागकर पाकिस्तान चला गया

जूनागढ़ के नवाब के विरुद्ध जब बहुत विरोध हुआ तो वह भागकर पाकिस्तान चला गया और इस प्रकार जूनागढ भी भारत में मिला लिया गया। जब हैदराबाद के निज़ाम ने भारत में विलय का प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया तो सरदार पटेल ने वहाँ सेना भेजकर निज़ाम का आत्मसमर्पण करा लिया। आज जो हम विशाल भारत की सूरत देखते हैं, वह सरदार वल्लभ भाई पटेल की रणनीतियों की वजह से संभव हो सका था। अगर ऐसा नहीं होता तो इस देश के कितने टुकड़े होते और भारत से अलग होकर कितने नए देश बनते यह कह पाना मुश्किल होता। सरदार वल्लभ भाई पटेल ने चतुराई से भारत के हिस्से में आए रजवाड़ों को एक-एक करके विलय पत्र पर हस्ताक्षर करवा लिए। इसके बावजूद कुछ रजवाड़े भारत संघ मे मिलने से आनाकानी कर रहे थे।

वह राज्य जो भारत से अलग होने की मंशा रखते थे

विभाजन के बाद हैदराबाद के निजाम उस्मान अली खान ने यह फैसला किया कि हैदराबाद रियासत न तो भारत और न ही पाकिस्तान में शामिल होगा। यह रियासत एक समृद्ध रियासतों मे से एक था। हैदराबाद के पास अपनी सेना, रेलवे, एयरलाइन नेटवर्क, डाक व्यवस्था और रेडियो नेटवर्क था। जब 15 अगस्त 1947 को भारत ने खुद को एक स्वतंत्र राष्ट्र घोषित कर दिया, तो हैदराबाद ने भी खुद को स्वतंत्र अधिकार वाला देश घोषित कर दिया। भारत के मध्य में एक स्वतंत्र हैदराबाद देश होने का विचार, हैरान करने वाला था। तब उप प्रधानमंत्री सरदार पटेल ने लार्ड माउन्टबेटन के साथ परामर्श किया। माउंटबेटन की यह राय थी कि यह मसला बिना किसी सैन्य बल के सुलझा लिया जाए।

हैदराबाद को भेजा एक प्रस्ताव

भारत ने इसके बाद हैदराबाद को एक प्रस्ताव भेजा, जिसमें यह कहा गया था कि वह अपने निर्णय पर पुनः विचार करें और साथ ही यह अाश्वासन भी दिया कि इसके बदले कोई भी सैन्य कार्रवाई नहीं की जाएगी। जून 1948 में भारत छोड़ने से पहले माउन्टबेटन ने हैदराबाद को एक और प्रस्ताव दिया कि वह भारत से समझौता कर ले, जिसके अंतर्गत हैदराबाद भारत की प्रभुता के अधीन एक स्वायत्त राष्ट्र का दर्जा प्राप्त कर सकता है। समझौते के मसौदे में शर्त रखी गई थी कि हैदराबाद अपने सशस्त्र बलों पर प्रतिबंध लगाएगा और स्वैच्छिक बलों को स्थगित करेगा। साथ ही हैदराबाद अपने क्षेत्र पर शासन कर सकता है, लेकिन विदेश नीति भारत सरकार तय करेगी। इस समझौते पर भारत ने हस्ताक्षर कर दिए, लेकिन निजाम ने इनकार कर दिया।

हुए सांप्रदायिक दंगे

अभी समझौते पर बात चल ही रही थी कि हैदराबाद मे हिंदुओं और मुसलमानों के बीच सांप्रदायिक दंगे हो गए। पूरे राज्य में तनाव था। हैदराबाद को पाकिस्तान और गोवा के पुर्तगाली प्रशासन से हथियार प्राप्त हो रहे थे। जैसे ही भारत सरकार को जानकारी हुई कि हैदराबाद पाकिस्तान के साथ गठबंधन करने की योजना बना रहा है, भारत ने तब हैदराबाद को क़ब्ज़े मे लेने का फैसला किया। इस अभियान का नाम दिया गया ऑपरेशन पोलो। 13 सितंबर 1948 को भारत और हैदराबाद के बीच लड़ाई शुरू हुई जो 18 सितंबर तक चली। निजाम की सेना ने भारतीय सेना के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया और इस तरह हैदराबाद भारत का हिस्सा बन गया।

सिक्किम

भारत की आजादी के पहले सिक्किम को ब्रिटिश सरकार से विशेषाधिकार प्राप्त थे। अंग्रेज़ो के जाने के बाद ये विशेषाधिकार समाप्त हो गए। उसके बाद शासक ताशी नामग्याल स्थानीय पार्टियों और लोकतंत्र समर्थक दलों के कड़े प्रतिरोध के बावजूद सिक्किम को एक विशेष संरक्षित राज्य का दर्जा दिलाने में सफल हो गए। स्थानीय राजनीतिक दल जो लोकतंत्र समर्थक थे, चाहते थे कि सिक्किम भारत में मिल जाए। भारत सिक्किम की बाहरी रक्षा, कूटनीति और संचार नियंत्रित कर रहा था। 1955 मे राज्य परिषद स्थापित किया गया, जिसपर पूर्ण नियंत्रण ताशी नामग्याल का था। राजा को ‘चोग्याल’ नाम से पुकारा जाता था।1962 के भारत-चीन युद्ध के दौरान, सिक्किम एक स्वतंत्र देश था। नाथूला नामक जगह पर भारतीय सीमा रक्षकों और चीनी सैनिकों के बीच झड़पें हुई। 1963 में ताशी नामग्याल की मौत हो गई। इसके बाद उनके बेटे पालदेन थोंडुप नामग्याल को सिंहासन मिला।

by ankit tripathi

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