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जानिए क्यों हुआ था असहयोग आन्‍दोलन और क्या थे इसके मुख्य उद्देश्‍य

असहयोग आन्‍दोलन

नई दिल्ली: असहयोग आन्‍दोलन की शुरूआत 1 अगस्त 1920 को हुई थी और इसका उद्देश्‍य अहिंसा के जरिये भारत में ब्रिटिश शासन का विरोध करना था। इसके अन्‍तर्गत तय किया गया कि विरोध प्रदर्शनकारी ब्रिटेन के माल को खरीदने से इंकार करेंगे और स्‍थानीय हस्‍तशिल्‍प की वस्‍तुओं का इस्‍तेमाल करेंगे तथा शराब की दुकानों के आगे धरने देंगे। अहिंसा के विचार और गांधी जी के कुशल नेतृत्‍व में करोड़ों नागरिक भारत की स्‍वाधीनता के आन्‍दोलन में शामिल हो गए थे।

 

असहयोग आंदोलन जानिए क्यों हुआ था असहयोग आन्‍दोलन और क्या थे इसके मुख्य उद्देश्‍य

 

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1919 से 1922 के मध्य अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध दो सशक्त जनआंदोलन चलाये गये। जिसने भारतीय स्‍वतंत्रता आंदोलन को एक नई जागृति प्रदान की। ये आांदोलन थे- खिलाफत एवं असहयोग आंदोलन हालांकि ये दोनों आन्दोलन पृथक-पृथक मुद्दों को लेकर प्रारम्भ हुये थे किन्तु दोनों ने ही संघर्ष के एक ही तरीके राजनीति से प्रत्यक्ष रूप से सम्बद्ध नहीं था। किन्तु इसने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को प्रोत्साहित करने में प्रमुख भूमिका निभायी।

 

 

असहयोग आंदोलन असफल रहा। इसलिए राजनैतिक गतिविधियों में कुछ कमी आ गई थी। साइमन कमीशन को ब्रिटिश सरकार द्वारा भारत सरकार की संरचना में सुधार का सुझाव देने के लिए 1927 में भारत भेजा गया। इस कमीशन में कोई भारतीय सदस्‍य नहीं था और सरकार ने स्‍वराज के लिए इस मांग को मानने की कोई इच्‍छा नहीं दर्शाई।

 

अत: इससे पूरे देश में विद्रोह की एक चिंगारी भड़क उठी तथा कांग्रेस के साथ मुस्लिम लीग ने भी लाला लाजपत राय के नेतृत्‍व में इसका बहिष्‍कार करने का आव्‍हान किया। इसमें आने वाली भीड़ पर लाठी बरसाई गई और लाला लाजपत राय, जिन्‍हें शेर-ए-पंजाब भी कहते हैं, एक उपद्रव से पड़ी चोटों के कारण शहीद हो गए।

 

17 नवम्बर 1921 में ‘प्रिंस आफ वेल्स’ के भारत दौरे के विरोध में विभिन्न स्थानों पर हड़तालों एवं प्रदर्शनों का आयोजन किया गया। इसके बाद पूरे बम्बई समेत कई स्थानों पर हिंसक वारदातें तथा पुलिस के साथ झड़पें हुई। असहयोग आंदोलन, धीरे-धीरे प्रभावी होता जा रहा था। कई स्थानीय आंदोलनों ने इसमें और ऊर्जा भर दी। इनमें अवध किसान आंदोलन (उत्तर प्रदेश), एका आंदोलन (उत्तर प्रदेश) मोपला विद्रोह (मालाबार) तथा पंजाब से महंतों के निष्कासन की मांग को लेकर चलाया गया सिखों का आंदोलन महत्वपूर्ण थे।

 

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मई 1921 में गांधीजी तथा भारत के तत्कालीन वायसराय लार्ड रीडिंग के मध्य वार्ता आयोजित की गयी। इस वार्ता में रीडिंग ने सरकार की ओर से गांधीजी से मांग की कि वे अली बंधुओं से अपने उस भाषण को वापस लेने का आग्रह करें जिसके कारण व्यापक पैमाने पर हिंसा हो रही थी। गांधीजी ने महसूस किया कि सरकार उनके एवं खिलाफत नेताओं के मध्य दरार पैदा करने की कोशिश कर रही है। अतः उन्होंने सरकार की मांग को ठुकरा दिया। इसके पश्चात् दिसम्बर में सरकार ने आंदोलनकारियों के विरुद्ध दमनात्मक कार्यवाही प्रारम्भ कर दी। स्वयंसेवी संगठनों को अवैध घोषित कर दिया गया, सार्वजनिक सभाओं पर प्रतिबंध लगा दिया गया, प्रेस को प्रतिबंधित कर दिया गया तथा गांधीजी समेत अनेक नेता गिरफ्तार कर लिये गये।

 

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उधर गांधीजी पर राष्ट्रीय स्तर पर सविनय अवज्ञा आदोलन छेड़ने के लिये दबाव पड़ने लगा। दिसम्बर 1921 में कांग्रेस का अधिवेशन अहमदाबाद में आयोजित किया गया। (इस अधिवेशन के अध्यक्ष हालांकि सी.आर. दास थे, किन्तु उनके जेल में होने के कारण हकीम अजमल खान को कार्यकारी अध्यक्ष बनाया गया) इस अधिवेशन में कांग्रेस ने गांधीजी को अवज्ञा का लक्ष्य, समय तथा भावी रणनीति तय करने का पूर्ण अधिकार दे दिया। उधर सरकार के रुख में कोई परिवर्तन नजर नहीं आ रहा शा। जनवरी 1922 में सर्वदलीय सम्मेलन की अपील तथा गांधीजी द्वारा वायसराय को लिखे गये पत्र का भी सरकार पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा।

 

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1 फरवरी 1922 को गांधीजी ने घोषणा की कि यदि सरकार- राजनीतिक बदियों को रिहा कर नागरिक स्वतंत्रता बहाल नहीं करेगी तथा प्रेस से नियंत्रण नहीं हटायेगी तो वे देशव्यापी सविनय अवज्ञा आंदोलन छेड़ने के लिये बाध्य हो जायेंगे।

 

यह आंदोलन सूरत के बारदोली तालुका से प्रारम्भ होने वाला था। किन्तु इस आंदोलन के प्रारम्भ होने के पूर्व ही चौरी-चौरा की घटना हो गयी तथा सम्पूर्ण परिदृश्य ही बदल गया।

खिलाफत आंदोलन और असहयोग आंदोलन का मूल्यांकन

 

इस आंदोलन ने शहरी मुसलमानों को राष्ट्रीय आंदोलन की मुख्य धारा में सम्मिलित किया, किन्तु कुछ अर्थों में इसने राष्ट्रीय राजनीति का साम्प्रदायीकरण भी किया। मुसलमानों की भागीदारी ने इस आंदोलन को जनआंदोलन का स्वरूप दिया, किन्तु बाद के वर्षों में जब साम्प्रदायिकता ने जोर पकड़ा तो राष्ट्रीय आंदोलन में साम्प्रदायिक सौहार्द का यह चरित्र बरकरार न रह सका। आंदोलन के नेता मुसलमानों की धार्मिक तथा राजनीतिक चेतना को धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक चेतना के रूप में विकसित करने में भी असफल रहे।

 

असहयोग आंदोलन ने पहली बार पूरे राष्ट्र की जनता को एक सूत्र में बाध दिया। आंदोलन से सिद्ध हो गया कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस कुछ चुनिंदा लोगों की ही नहीं, अपितु पूरे राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्था है। आंदोलन ने देश के कोने-कोने में अपना प्रभाव डाला तथा कोई जगह ऐसी नहीं बची, जो आंदोलन के प्रभाव से अछूती रह गयी हो। आंदोलन में समाज के हर वर्ग यथा- कृषक, शहरी, पुरुष, महिला इत्यादि सभी ने सक्रिय रूप से भाग लिया।

 

इस आंदोलन ने देश की जनता को आधुनिक राजनीति से परिचित कराया तथा उनमें स्वतंत्रता की भूख जगायी। आंदोलन ने सिद्ध कर दिया कि भारत के लोग राजनीतिक संघर्ष प्रारम्भ कर सकते हैं तथा गुलामी की दासता से मुक्ति पाने हेतु राष्ट्र का प्रत्येक नागरिक संघर्ष कर सकता है। इससे अंग्रेजों की यह भ्रांत धारणा भी टूट गयी कि भारतीयों में चेतना का अभाव है तथा दासता की त्रासदी को वे अपने भाग्य की नियति मानते हैं।

 

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उपनिवेशी शासन दो मिथ्या अवधारणाओं पर आधारित था- पहला, यह कि विदेशी शासन भारतीयों के हित में है तथा दूसरा, यह कि वह अजेय है तथा उसे कोई परास्त नहीं कर सकता। प्रथम मिथक को नरमपंथी राष्ट्रवादियों ने सरकार की आर्थिक शोषण की प्रवृति को उजागर कर पहले ही तोड़ दिया था तथा दूसरे मिथक को इस आंदोलन ने ‘सत्याग्रह’ के द्वारा कड़ी चुनौती दी तथा इसकी जड़ों को हिलाकर रख दिया। इस प्रकार आंदोलन के पश्चात् भारतीयों का साम्राज्यवादी शासन से भय जाता रहा तथा वे स्वतंत्रता प्राप्ति के प्रति पूर्णरूप से लालायित हो गये।

 

                                                                 है नमन उनको जो यशकाय को अमरत्व देकर, 

                                                                इस जगत में शौर्य की जीवित कहानी हो गए हैं,

                                                               है नमन उनको जिनके सामने बौना हिमालय,   

                                                              जो धरा पर गिर पड़े पर आसमानी हो गए हैं। 

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