- ओशो
इब्राहिम सम्राट था। वह अपने गुरु के पास गया और उसने कहा कि मुझे दीक्षा दें। गुरु ने क्या कहा मालूम है? गुरु ने कहा : कपड़े छोड़ दे, इसी वक्त कपड़े छोड़ दे। सम्राट से कहा कपड़े छोड़ दे! और भी शिष्य बैठे थे, सत्संग जमा था, दरबार था फकीर का। किसी से कभी उसने ऐसा न कहा था कि कपड़े छोड़ दे। और इब्राहिम को कहा कपड़े गिरा दे, इसी वक्त गिरा दे! और इब्राहिम ने कपड़े गिरा भी दिये नग्न खड़ा हो गया। शिष्य तो चौंक गये। और जो बात फकीर ने कही, वह और भी अदभुत थी। अपना जूता उठा कर उसको दे दिया और कहा : यह ले जूता और चला जा बाजार में! नंगा जा और सिर पर जूता मारते जाना और अल्लाह का नाम लेना। लोग हंसें, लोग पत्थर फेंकें, लोग भीड़ लगायें, कोई फिक्र न करना, पूरा गांव का चक्कर लगा कर वापिस आ।
और इब्राहिम चल पड़ा। इब्राहिम के जाते ही और शिष्यों ने पूछा कि ऐसा आपने हम से कभी अपेक्षा नहीं की, यह आपने क्या किया? इसकी क्या जरूरत थी? सिर में जूते मारने से कैसे संन्यास हो जायेगा? गांव में नंगे घूमने से कैसे संन्यास हो जायेगा?
उस फकीर ने कहा तुमसे मैंने अपेक्षा नहीं की थी, क्योंकि मैंने सोचा नहीं था कि तुम इतनी हिम्मत कर सकोगे। यह सम्राट है, इसकी कूव्वत है। यह हिम्मत का आदमी है। इसकी हिम्मत की जाँच करनी जरूरी है। जूते मारने से कुछ नहीं होगा, और नंगे जाने से कुछ नहीं होगा; लेकिन बहुत कुछ होगा।
यह आदमी जा सका, इसी में हो गया। इस आदमी ने ना-नुकुर न की। इसने एक बार भी नहीं पूछा कि इसका मतलब? यह किस प्रकार का संन्यास है, यह कैसी दीक्षा! इस तरह आप दीक्षा देते हैं? किस को इस तरह दीक्षा दी? इसने संदेह न उठाया, सवाल न उठाया; इसी में घटना घट गयी। यह आदमी मेरा हो गया। तुम वर्षों से यहां मेरे पास हो और इतने निकट न आये, जितना यह आदमी मेरे निकट आ गया है—चुपचाप वस्त्र गिरा कर, जो जूता लेकर चला गया है और गांव में फजीहत करवा रहा है। अपने अहंकार को मिट्टी में मिलवा रहा है! तुम वर्षों में मेरे करीब न आ सके, यह आदमी मेरे करीब आ गया। और इब्राहिम जब लौटा, तो उसके चेहरे पर रौनक और थी, आदमी दूसरा था—दीप्तिवान था! अब जूता तो बाहर की चीज है और कपड़े भी बाहर की चीज हैं। ऐसे तो सभी बाहर है।
लेकिन सदगुरु को उपाय करने पड़ते हैं। तुम बाहर हो, तुम्हें भीतर लाने के उपाय करने पड़ते हैं। इब्राहिम अदभुत फकीर हुआ। उसकी गहराइयों का कुछ कहना नहीं! मगर इस छोटी सी बात में घटना घट गयी !
- ओशो, मरो है जोगी मरो
(गोरख नाथ) प्रवचन–20