Uncategorized featured देश

RTI Act: सरकारी रूपी सत्ता प्रतिष्ठान कि लोकायुक्त की जांच को अपने अधिकार में लेने की मांग

RTI act 2005 RTI Act: सरकारी रूपी सत्ता प्रतिष्ठान कि लोकायुक्त की जांच को अपने अधिकार में लेने की मांग

एजेंसी, नई दिल्ली। सूचना का अधिकार (आरटीआई) बेशक, देश के नागरिकों के सशक्तिकरण के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कानूनों में शुमार है। लोग राशन कार्ड और पेंशन से लेकर बड़े टिकट घोटालों तक, शैक्षणिक योग्यता और सरकारी कर्मचारियों की संपत्तियों से लेकर मानवाधिकारों के हनन तक तमाम मुद्दों पर सरकार की जवाबदेही इस कानून के जरिए जानना चाहते हैं। ताकतवर और उच्च पदस्थ लोगों से जवाबतलबी में व्यापक रूप से इसका प्रयोग हो रहा है। सूचना हासिल करने के लिए हर साल छह लाख से ज्यादा आवेदन आते हैं। भारत का सूचना का अधिकार कानून विश्व में सर्वाधिक इस्तेमाल होने वाला पारदर्शी कानून है। लोकतांत्रिक ढांचे में सत्ता के पुनर्वितरण के दृष्टिगत आरटीआई कानून ने पहल की है। संभवत: इसी के चलते शक्तिशाली पदों पर बैठे लोग अपने दायित्व निर्वहन में सतत प्रयासरत रहते हैं। लेकिन इस कानून को हाल में निशाने पर लिया गया जब सरकारी रूपी सत्ता प्रतिष्ठान ने मंशा जताई कि उसके पास सूचना आयुक्तों के खिलाफ आने वाली शिकायतों की जांच और उनका निपटारा करने का अधिकार होना चाहिए।
आरटीआई एक्ट के तहत सूचना आयुक्तों के पास अंतिम फैसला करने का अधिकार होता है। एक्ट के तहत मांगी गई सूचना न दिए जाने पर नागरिकों की शिकायतों और अपीलों पर वे ही अंतिम फैसला करते हैं। हाल के समय में प्राय: सूचना आयोग ने ऐसी सूचना देने को भी कहा जिससे सरकार को असुविधा हुई। प्रधानमंत्री की शैक्षणिक योग्यता और विमुद्रीकरण संबंधी जानकारियां आरटीआई के तहत मांगा जाना ऐसे उदाहरण हैं, जिनने सरकार को सांसत में डाला। मीडिया रिपोटरे के मुताबिक, सरकार ने दो नौकरशाह-नीत कमेटियों की स्थापना का प्रस्ताव रखा है। एक कमेटी मुख्य सूचना आयुक्त के खिलाफ आने वाली शिकायतों पर जांच करके फैसला करेगी; और दूसरी कमेटी सूचना आयुक्तों के खिलाफ आने वाली शिकायतों को देखेगी। मुख्य सूचना आयुक्त के खिलाफ शिकायतों की जांच करने वाली कमेटी में कैबिनेट सचिव, डीओपीटी के सचिव और एक रिटार्यड मुख्य सूचना आयुक्त शामिल होंगे। सूचना आयुक्तों के खिलाफ मिलने वाली शिकायतों की जांच करने वाली कमेटी में मंत्रिमंडलीय सचिवालय में सचिव (समन्वय), डीओपीटी के सचिव तथा एक रिटार्यड आयुक्त शामिल होंगे। इस बाबत मसौदा अति गोपनीय तरीके से तैयार किया गया जो नीति-निर्माण में पारदर्शिता के बुनियादी लोकतांत्रिक सिद्धांत में सीधे-सीधे हस्तक्षेप है।
सूचना आयुक्तों के खिलाफ शिकायतों को सुनने और उन पर फैसला देने का अधिकार ऐसी सरकारी कमेटियों को सौंपे जाना सीधे-सीधे सूचना आयुक्तों की स्वायत्तता कमतर करने का प्रयास है। सच तो यह है कि इससे सूचना आयुक्त सरकार के सुर में सुर मिलाने को मजबूर होंगे। सरकार को प्राय: लगता है कि असुविधा के सबब बनने वाली सूचना उसके लिए गंभीर साबित होती है।
ऐसा कोई भी प्रस्ताव पूरी तरह से अवैध होगा क्योंकि आरटीआई एक्ट में निहित है कि सूचना आयोग सरकार के किसी भी हस्तक्षेप से स्वतंत्र हैं, वे स्वायत्त होते हैं। आरटीआई एक्ट में प्रावधान है कि आयुक्तों को केवल राष्ट्रपति ही पद से हटा सकते हैं। प्रावधान है कि उनके खिलाफ शिकायत को राष्ट्रपति सुप्रीम कोर्ट को प्रेषित करेंगे जो जांच के बाद सूचना आयुक्त को हटाने का समुचित कारण मिलने यानी र्दुव्यवहार या अयोग्यता संबंधी शिकायत सही साबित होने पर राष्ट्रपति के पास अपनी सिफारिश भेजता है। उसी के मुताबिक राष्ट्रपति फैसला करते हैं। सूचना आयुक्तों की महत्त्वपूर्ण भूमिका को जानते-समझते हुए भी सरकार ने बार-बार सूचना आयोगों के कामकाज को प्रभावित करने के प्रयास किए। हालिया प्रस्ताव भी उसी की एक कड़ी है, जिसे सिरे चढ़ाने के लिए भाजपा सरकार चुपके-चुपके सक्रिय रही। प्रस्तावित संशोधन में केंद्र सरकार को ज्यादा अधिकार दिए जाने की बात कही जा रही है, जिससे वह सूचना आयुक्तों के कार्यकाल, वेतन, भत्तों और सेवा संबंधी अन्य शतरे की बाबत फैसला कर सके। सच तो यह है कि इन सबका आरटीआई एक्ट में पहले से ही खुलासा कर दिया गया है। अप्रैल, 2018 में खबर थी कि अध्यादेश के जरिए आरटीआई एक्ट में संशोधन होने जा रहा है। खबर से उद्वेलित लोग इस कानून को बचाने के लिए सड़कों पर उतर आए थे। उसके बाद प्रत्येक संसद सत्र में संशोधन बिल पेश करने की कोशिश की गई लेकिन लोगों तथा विपक्षी दलों के दबाव में यह पेश नहीं किया जा सका।
सूचना आयोगों की स्वायत्तता छीनने के लिए आरटीआई एक्ट में संशोधन करने के प्रयास के अलावा सरकार ने आयुक्तों की रिक्तियां भरने में जानबूझकर दिलचस्पी नहीं दिखाई। 2014 में सत्ता में आने के बाद भाजपा सरकार ने केंद्रीय सूचना आयोग में तब ही कोई नियुक्ति की जब नागरिकों ने अदालतों का दरवाजा खटखटाया। अदालत से आदेश के बाद ही सूचना आयुक्तों की नियुक्ति संभव हो सकी। मजे की बात यह कि जिस समय सरकार ने नियुक्ति करने से मना किया था, तब केंद्रीय सूचना आयोग में 11 आयुक्तों की रिक्तियां थीं। आखिर, सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर ही आयोग में मुखिया और चार अन्य आयुक्तों की नियुक्ति हो सकी। समय से नियुक्ति नहीं होने से आयोग का भार बढ़ गया। शिकायतों और अपीलों के अंबार लगे जा रहे हैं, जिसके चलते नागरिकों के लिए इस कानून का कोई मायने नहीं रह जाता।
इसलिए जरूरी हो गया है कि सरकार कोई ऐसा तरीका अपनाए जिससे सूचना आयुक्तों की समय पर पारदर्शी ढंग से नियुक्ति हो सके। सच तो यह है कि फरवरी, 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने प्रधानमंत्री-नीत चयन समिति द्वारा की जा रही सूचना आयुक्तों की नियुक्ति पर गंभीर रुख अपनाया था। चयन संबंधी तमाम औपचारिकताओं को सार्वजनिक करने को कहा था। सरकार को निर्देश दिया था कि किसी आयुक्त के सेवानिवृत्त होने से कम से कम एक-दो महीने पहले नये सूचना आयुक्त को नियुक्त करने की प्रक्रिया आरंभ की जानी चाहिए ताकि आयोगों पर काम का बोझ एकाएक न बढ़ने पाए। लेकिन लगता है कि सरकार ने अदालत के निर्देशों को क्रियान्वित करने के बजाय आरटीआई एक्ट को ही कमजोर करने की चाल चलने को बेहतर समझा। विडम्बना यह कि भाजपा भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग छेड़ने का नारा देकर ही केंद्र में सत्तारूढ़ हुई थी, लेकिन बीते पांच वर्षो में उसने बार-बार इस एक्ट को कमतर करने के प्रयास किए हैं। सूचना अधिकार कानून में संशोधन संबंधी उसके हालिया प्रस्ताव से तो नरेन्द्र मोदी सरकार के ‘मैं भी चौकीदार’ जैसे जोर-शोर से लगाए जा रहे नारों का खोखलापन जाहिर हो गया है।

Related posts

हरिद्वार में लगेगा 2021 कुंभ मेला, जानिए कुंभ के आयोजन से पहले होने वाले धर्म ध्वजा स्थापना के बारे में

Aman Sharma

एम्स की डॉक्टर ने की आत्महत्या

Rahul srivastava

बेटियां किसी से कम नही इसका सबूत दिया सोनभद्र के दुध्धी आदिवासी बहुल इलाके की बेटियों ने

Rani Naqvi