मराठी शेर शिवा जी और मुगल शासक औरंगजेब के किस्से हम सभी जानते हैं। शिवाजी की पैतृक जायदाद बीजापुर के सुल्तान द्वारा शासित दक्कन में थी। बीजापुर के सुल्तान आदिल शाह ने बहुत से दुर्गों से अपनी सेना हटाकर उन्हें स्थानीय शासकों के हाथों सौंप दिया था।
16 वर्ष की आयु तक पहुंचते-पहुंचते उन्हें विश्वास हो गया कि हिन्दुओं की मुक्ति के लिए संघर्ष करना होगा। शिवाजी ने अपने विश्वासपात्रों को इकट्ठा कर अपनी ताकत बढ़ानी शुरू कर दी। जब आदिलशाह बीमार पड़ा तो शिवाजी ने इस मौके लाभ उठाकर बीजापुर में प्रवेश करने का फैसला लिया। उन्होंने टोरना किले का कब्जा हासिल कर लिया।
1659 में आदिलशाह ने अपने सेनापति को शिवाजी को मारने के लिए भेजा। दोनों के बीच प्रतापगढ़ किले पर युद्ध हुआ। इस युद्ध में वे विजयी हुए। शिवाजी की बढ़ती ताकत को देखते हुए मुगल सम्राट औरंगजेब ने जय सिंह और दिलीप खान को शिवाजी को रोकने के लिए भेजा। उन्होंने एक समझौते पर शिवाजी से हस्ताक्षर करने को कहा। समझौते के मुताबिक उन्हें मुगल शासक को 24 किले देने होंगे।
शिवाजी आगरा के दरबार में औरंगजेब से मिलने के लिए गए। लेकिन औरंगजेब द्वारा उचित सम्मान न मिलने पर शिवाजी ने भरे हुए दरबार में औरंगजेब को विश्वासघाती कहा। इससे औरंगजेब ने उन्हें एवं उनके पुत्र को ‘जयपुर भवन’ में कैद कर दिया।लेकिन शिवाजी को फलों की टोकरी में छिपकर फरार हो गए और को रायगढ़ पहुंचे। और यहीं से हिन्दू धर्म के प्रति औरंगजेब की कट्टरता और भी ज्यादा बढ़ने लगी।
मुगल औरंगजेब अपने समय का कट्टर मुस्लिम शासक तहा जाता है। औरंगजेब ने अपने शासन कोल में ऐसी-ऐसी चीजें की जो कोई मुगल शासक न कर सका।लेकिन इस बीच भी औरंगजेब का साथ देने वाला कोई मुसलमान नहीं बल्कि एक वीर योद्धा राजपूत ही था। मिर्ज़ा राजा जयसिंह’ अथवा ‘जयसिंह प्रथम’ आमेर के राजा तथा मुग़ल साम्राज्य के वरिष्ठ सेनापति थे. शाहजहाँ ने अप्रॅल, 1639 ई. में जयसिंह को रावलपिण्डी बुलाकर ‘मिर्ज़ा राजा‘ की पदवी दी थी। यह पदवी उनके दादा मानसिंह को भी अकबर से मिली थी।
जयसिंह मुग़ल दरबार का सर्वाधिक प्रभावशाली सामंत था। बादशाह औरंगज़ेब के लिए वह सबसे बड़ा आँख का काँटा था।दरअसल मिर्जा राजा ने उत्तराधिकार की लड़ाई शाहजहाँ के चहेते बेटे दारा का साथ दिया था। जब औरंगजेब बादशाह बना तो जय सिंह से नाराज होते हुए भी उन्हें दरबार में ऊँची पदवी दी। राजा जय सिंह का राजपूतों पर काफी असर था। इसलिए औरंगजेब राजा जय सिंह से वैर मोल लेकर राजपूतों को नाराज नहीं करना चाहता था। शिवाजी महाराज के साथ युद्ध में जब अफ़ज़ल ख़ाँ एवं शाइस्ता ख़ाँ की हार हुई तब औरंगज़ेब ने मिर्ज़ा राजा जयसिंह को शिवाजी महाराज को दबाने के लिए भेजा।
इस प्रकार वह एक तीर से दो शिकार करना चाहता था।जयसिंह खुद को राम का वंशज मानता था। उसने युद्ध में जीत हासिल करने के लिए एक सहस्त्र चंडी यज्ञ भी कराया। शिवाजी को इसकी खबर मिल गयी थी जब उन्हें पता चला की औरंगजेब हिन्दुओं को हिन्दुओं से लड़ाना चाहता है। जिस से दोनों तरफ से हिन्दू ही मरेंगे। तब शिवाजी ने जयसिंह को समझाने के लिए पत्र लिखा।
जयसिंह ने बड़ी बुद्धिमत्ता, वीरता और कूटनीति से शिवाजी को औरंगजेब से संधि करने के लिए राजी किया।लेकिन औरंगजेब की तरफ की की गई बदसलूकी के चलते ये संधि न हो सकी। जि के बाद औरंगजेब ने शिवा जी को कैद में डलवा दिया। और वो वहां से निकल भागे लेकिन लेकिन इसकी किमत जय सिंह को चुकानी पड़ी।
मिर्ज़ा राजा जयसिंह और उसका पुत्र कुँवर रामसिंह भी उसके लिए दोषी समझे गये, क्योंकि वे ही शिवाजी की आगरा में सुरक्षा के लिए अधिक चिंतित थे।औरंगज़ेब ने रामसिंह का मनसब और जागीर छीन ली तथा जयसिंह को तत्काल दरबार में उपस्थित होने का हुक्मनामा भेजा। जयसिंह को इस बात का बड़ा खेद था कि शिवाजी को आगरा भेजने में उसने जिस कूटनीतिज्ञता और सूझ-बूझ का परिचय दिया था, उसके बदले में उसे वृद्धावस्था में अपमान एवं लांछन सहना पड़ा। इस दु:ख में वह अपनी यात्रा भी पूरी नहीं कर सका और मार्ग में बुरहानपुर में 1667 में उसकी मृत्यु हो गई।
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लेकिन जिन लोगों को लगता है कि, शिवाजी और औरंगजेब दो अपने-अपने धर्म के लिए लड़ रहे तो आपको बता दें, उस युद्ध जागिरों को जीतने के लिए हुआ करते थे। जिनमें उनका साथ -हिन्दू हो या मुसलमान सभी दिया करते थे। और इसका सबसे जीता जागता उदाहरण मुशगल शासक अकबर के दरबार में राजा मान सिंह का होना है और औरंगजेब के दरबार में राजा जय सिंह का होना है।