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बिहार की जातिगत राजनीति के तिलिस्म को कितना तोड़ पाएंगे प्रशांत किशोर और कन्हैया कुमार

बिहार 6 बिहार की जातिगत राजनीति के तिलिस्म को कितना तोड़ पाएंगे प्रशांत किशोर और कन्हैया कुमार

नई दिल्ली। पिछले कुछ दिनों से बिहार के दो युवा नेता प्रशांत किशोर और कन्हैया कुमार की खूब चर्चा हो रही है। दोनों नेताओं की चर्चा बिहार ही नहीं, देश के दूसरे राज्यों में भी हो रही है, लेकिन इस समय दोनों नेता अपना-अपना भविष्य तलाशने में लगे हुए हैं और दोनों को लगता है कि बिहार से ही उनका भविष्य जुड़ा है। संयोग से दोनों नेता अगड़ी जाति से आते हैं। इसलिए भविष्य तलाशने में उनको खूब मेहनत भी करनी पड़ रही है। प्रशांत किशोर जेडीयू से अलग होकर भविष्य की राजनीति तलाश रहे हैं, तो कन्हैया कुमार भी सीएए और एनआरसी के विरोध में बिहार के हर जिलों में सभा कर रहे हैं। दोनों नेता जाति का बंधन तोड़ कर पूरे बिहार का नेता बनने का प्रयास कर रहे हैं। ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या कन्हैया कुमार और प्रशांत किशोर बिहार की जातिगत राजनीति का तिलिस्म तोड़ पाएंगे? बिहार में पिछले कुछ दशकों से पिछड़े, दलित और मुस्लिम वोटर्स ही निर्णायक भूमिका निभाते आ रहे हैं। ऐसे में कन्हैया कुमार और प्रशांत किशोर पर ये तबका भरोसा करेगा या नहीं, यह बड़ा सवाल है?

बता दें कि बिहार विधानसभा चुनाव की तारीख ज्यों-ज्यों नजदीक आ रही है, राज्य के राजनीतिक तापमान में भी गर्माहट आने लगी है। मंगलवार को JDU से निकाले जाने के बाद प्रशांत किशोर ने नीतीश कुमार पर एक के बाद एक ताबड़तोड़ हमले किए। प्रशांत किशोर ने मीडिया के सवालों का जवाब भी दिया और मीडिया के एक वर्ग को नसीहत भी दे डाली। किशोर ने कहा कि बिहार को हम भी अच्छे तरीके से समझते और जानते हैं। मैं बिहार में पोलिटिकल वर्कर बनकर आया हूं और लंबे समय तक रहूंगा। 

सीएम नीतीश पर हमला करते हुए उन्होंने कहा कि बिहार की तरक्की, युवाओं को रोजगार और अन्य मुद्दों को आप भूल नहीं सकते हैं। एक तरफ पूरे बिहार में गांधी की कही बातों का शिलापट्ट लगाते हैं, तो दूसरी तरफ गोडसे के विचारधारा से प्रभावित लोगों के साथ खड़े हो जाते हैं। क्या दोनों बातें एक साथ हो सकती है? बिहार विकास के कई मानकों पर आज भी दूसरे राज्यों के मुकाबले काफी पिछड़ा हुआ है। नीतीश कुमार ने बिहार में साइकिल और पोशाक बांटा, लेकिन शिक्षा की गुणवत्ता नहीं सुधरी। नीतीश कुमार बोलते हैं कि हर घर में बिजली पहुंच गई है, लेकिन उपयोग बिहार में सबसे कम है, क्योंकि लोग गरीब हैं।

प्रशांत किशोर आगे कहते हैं, ‘नीतीश जी कहते हैं, ‘राजनीति में थोड़ा कॉम्प्रोमाइज करना पड़ता है, लेकिन अगर बिहार का विकास हो रहा है तो झुकने में कोई हर्ज नहीं है। लेकिन क्या बिहार में विकास हो गया है? क्या बिहार को विशेष राज्य का दर्जा मिला? बिहार का विकास हुआ है, ये मानता हूं, लेकिन विकास की गति और आयाम ऐसे नहीं हैं, जिससे लगे कि बिहार में आमूलचूल परिवर्तन हुआ हो।

प्रशांत किशोर कहते हैं, ‘आज बिहार के गवर्नेंस पर कोई बोलने वाला नहीं है। नीतीश जी का मानना है कि पिछली सरकारों में कुछ नहीं हुआ, इसलिए जो थोड़ा-बहुत कर रहा हूं, वही बहुत है। इस सोच के साथ नीतीश कुमार कब तक शासन चलाएंगे? नीतीश कुमार बिहार की तुलना देश के दूसरे राज्यों से क्यों नहीं कर रहे हैं? बिहार के लोग जानना चाहते हैं कि पिछली सरकारों के मुकाबले आपने क्या किया? आप ये भी बताइए कि बिहार महाराष्ट्र के मुकाबले, हरियाणा के मुकाबले और गुजरात के मुकाबले कहां खड़ा है? दूसरी तरफ कन्हैया कुमार भी बिहार के हर जिले में जा कर सीएए का विरोध कर रहे हैं। ऐसे में जानकारों का मानना है कि बिहार की तकरीबन 20 प्रतिशत आबादी को छोड़ दें, तो वह प्रशांत किशोर या कन्हैया कुमार की बात पर विश्वास करेगा, इस पर संदेह है। बिहार में अगर चुनाव हो और वह भी जातीय गणित के हिसाब से नहीं हो, यह संभव नहीं। लोकसभा चुनाव से लेकर पंचायत स्तर के चुनाव में जाति का कार्ड जमकर खेला जाता है।

बिहार के जातिगत समीकरण को करीब से समझने वाले राजनीतिक विश्लेषक शशि शंकर सिंह कहते हैं, ‘बिहार के जातिगत समीकरण को प्रशांत किशोर या कन्हैया कुमार के द्वारा तोड़ पाना फिलहाल संभव नहीं है। हां, लोकसभा चुनाव 2019 में यह समीकरण जरूर टूट गया था। पीएम मोदी ने बिहार की जातिगत राजनीति को तोड़ दिया था। अभी कन्हैया कुमार या प्रशांत किशोर को जमीन पर बहुत मेहनत करनी पड़ेगी। बिहार के लोग राजनीतिक तौर पर काफी सजग हैं। यहां 200 से भी अधिक जातियां और उपजातियां हैं। विधानसभा का चुनाव हो या लोकसभा का चुनाव या फिर राज्यसभा और विधान परिषद का चुनाव, राजनीतिक पार्टियां जाति और उसकी आबादी के हिसाब से सीटें बांटती हैं। नीतीश कुमार को कुछ सवर्ण जातियों, गैर यादव ओबीसी, अति पिछड़ी जातियां, महादलित जाति समूह और मुसलमानों और खासकर पसमांदा मुस्लिमों से विशेष उम्मीदें रहती हैं। वहीं, बीजेपी को सवर्ण जातियों का बड़ा तबका, कुछ यादव और गैर यादव अति पिछड़ी और महादलित जातियों के एक बड़े तबके का वोट मिलता रहा है।

वहीं सिंह आगे कहते हैं, ‘बिहार में जो भी नेता बने हैं- जैसे लालू प्रसाद यादव, रघुवंश प्रसाद सिंह, सीपी ठाकुर, अश्विनी चौबे, नीतीश कुमार, जीतन राम मांझी, रामविलास पासवान, इन सभी ने जमीन पर मेहनत की, संघर्ष किया। इसके मुकाबले प्रशांत किशोर या कन्हैया कुमार को अभी लोगों के बीच पहुंच बनानी होगी। संघर्ष का ही परिणाम था कि नीतीश कुमार ने पहली बार लालू की जातिगत राजनीति के तिलिस्म को तोड़ा था। बिहार में अगर जातिगत आबादी की बात करें तो ओबीसी समुदाय की 50 फीसदी से भी ज्यादा वोट हैं। 14.4% यादव समुदाय, कोइरी और कुर्मी लगभग 10.5 प्रतिशत हैं। दलित 16 फीसदी हैं। सवर्णों की आबादी 17% है, जिनमें भूमिहार 4.7%, ब्राह्मण 5.7%, राजपूत 5.2% और कायस्थों की आबादी 1.5 प्रतिशत है। राज्य में मुस्लिम समुदाय की आबादी 16.9% है. ऐसे में प्रशांत किशोर या कन्हैया कुमार जैसे नेताओं को बिहार में जातियों के महाजाल को तोड़ने में अभी काफी वक्त बिहार में गुजारना पड़ेगा।

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