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संतान सप्तमी व्रत : संतान की रक्षा के लिए किए जाने वाले इस व्रत का क्या है महत्व और कथा

Screenshot 2021 09 12 152944 संतान सप्तमी व्रत : संतान की रक्षा के लिए किए जाने वाले इस व्रत का क्या है महत्व और कथा

 हिंदू वैदिक धर्म में संतान प्राप्ति से लेकर संतान की रक्षा तक के लिए अनेकों व्रतों का उल्लेख किया गया है। उनमें से एक व्रत संतान सप्तमी व्रत है। जिसे भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि के दिन किया जाता है। संतान से जोड़ा ये व्रत खासतौर पर संतान प्राप्ति, संतान रक्षा और संतान की उन्नति के लिए किया जाता है।

कब है संतान सप्तमी व्रत

संतान सप्तमी का व्रत इस वर्ष 13 सितंबर सोमवार यानी कल के दिन किया जाएगा। 

इस दिन किसकी करें पूजा

वैदिक धर्म के अनुसार संतान सप्तमी के व्रत में भगवान शिव और माता गौरी की पूजा की जाती है। भाद्रपद की शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि जाने वाला यह व्रत विशेष महत्व रखता है। 

इस व्रत का क्या है महत्व

संतान सप्तमी का व्रत संतान प्राप्ति, संतान की रक्षा और संतान की उन्नति के लिए किया जाता है। हिंदू वैदिक धर्म शास्त्रों के अनुसार यह व्रत विशेष रूप से स्त्रियां करती हैं। जिससे उनके संतान की उन्नति होती है यदि कोई महिला संतान ही है और इससे कब वर्क करती हैं और पूरे मन से भगवान शिव और पार्वती की आराधना करते हैं तो निश्चित तौर पर उसे जल्द ही संतान की प्राप्ति होती है।

संतान सप्तमी व्रत कथा

संतान सप्तमी व्रत की संबंधित एक पौराणिक कथा प्रचलित है इस कथा के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को बताया था कि किस समय मथुरा में लोमश ऋषि आए थे मेरे माता-पिता देवकी तथा वसुदेव ने भक्तिपूर्वक उनकी सेवा की तो ऋषि ने उन्हें कंस द्वारा मारे गए पुत्रों के शोक से उबरने के लिए उन्हें ‘संतान सप्तमी’ का व्रत करने को कहा था।

उस वक्त लोमश ऋषि ने उन्हें संतान सप्तमी व्रत का पूजन-विधान बताकर व्रत कथा सुनाते हैं। 

 नहुष अयोध्यापुरी का प्रतापी राजा था। उसकी पत्नी का नाम चंद्रमुखी था उसके राज्य में ही विष्णुदत्त नामक एक ब्राह्मण रहा करता था। उसकी पत्नी का नाम रूपवती था। रानी चंद्रमुखी तथा रूपवती अच्छी सखियों थी। एक दिन वे दोनों सरयू में स्नान के लिए जाती है। जहाँ अन्य स्त्रियां भी स्नान कर रही थीं। वे स्त्रियों ने वहीं पार्वती-शिव की प्रतिमा बनाकर विधिपूर्वक उनका पूजन किया जिसे बड़े ध्यान से रानी चंद्रमुखी तथा रूपवती देख रही थी। पूजा समाप्त होने के बाद उन्होंने उन स्त्रियों से पूजन का नाम तथा विधि के बारे में पूछा।

उन स्त्रियों में से एक ने बताया- यह संतान प्राप्ति के लिए किया जाता है। इस व्रत के बारे में सुनकर दोनों सखियों ने बहुत प्रसन्न हुई और दोनों ने जीवन-पर्यन्त इस व्रत को करने का संकल्प किया। किंतु घर पहुंचे पास है वह अपना संकल्प भूल जाती है, फलतः मृत्यु के पश्चात रानी वानरी तथा ब्राह्मणी मुर्गी की योनि में पैदा हुईं।

कालांतर में दोनों पशु योनि छोड़कर पुनः मनुष्य योनि में जन्म लिया। चंद्रमुखी मथुरा के राजा पृथ्वीनाथ की रानी बनी तथा रूपवती ने फिर एक ब्राह्मण के घर जन्म लिया। इस जन्म में रानी का नाम ईश्वरी तथा ब्राह्मणी का नाम भूषणा था. भूषणा का विवाह राजपुरोहित अग्निमुखी के साथ हुआ। इस जन्म में भी उन दोनों में बड़ा प्रेम हो गया।

व्रत भूलने के कारण ही रानी इस जन्म में भी संतान सुख से वंचित रहीं. भूषणा ने व्रत को याद रखा था इसलिए उसके गर्भ से सुन्दर तथा स्वस्थ आठ पुत्रों ने जन्म लिया। रानी ईश्वरी के पुत्रशोक की संवेदना के लिए एक दिन भूषणा उससे मिलने गई। उसे देखते ही रानी के मन में ईर्ष्या पैदा हो गई और उसने उसके बच्चों को मारने का प्रयास किया. किन्तु वह बालकों का बाल भी बांका न कर सकी। उसने भूषणा को बुलाकर सारी बात बताईं और फिर क्षमा याचना करके उससे पूछा- आखिर तुम्हारे बच्चे मरे क्यों नहीं. भूषणा ने उसे पूर्वजन्म की बात स्मरण कराई और कहा कि उसी के प्रभाव से आप मेरे पुत्रों को चाहकर भी न मार सकीं। यह सब सुनकर रानी ईश्वरी ने भी विधिपूर्वक संतान सुख देने वाला यह मुक्ताभरण व्रत रखा तब व्रत के प्रभाव से रानी गर्भवती हुई और एक सुंदर बालक को जन्म दिया. उसी समय से पुत्र-प्राप्ति और संतान की रक्षा के लिए संतान सप्तमी व्रत के लिए ये कथा प्रचलित है।

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