धर्म

कार्तिक स्नान का है खास महत्व, जानें स्नान की विधि और लाभ

कार्तिक स्नान कार्तिक स्नान का है खास महत्व, जानें स्नान की विधि और लाभ

आश्विन मास के शुक्ल पक्ष में जो पापांकुशा एकादशी आती है, उसी दिन आलस्य छोड़कर कार्तिक के उत्तम व्रतों का नियम ग्रहण करें। व्रत करने वाला पुरुष पहर भर रात बाकी रहे तभी उठे और जल सहित लोटा लेकर गाँव से बाहर नैर्ऋत्यकोण की ओर जाय। दिन और सन्ध्या के समय उत्तर दिशा की ओर मुँह करके तथा रात हो तो दक्षिण की ओर मुँह करके मल-मूत्र का त्याग करे। पहले जनेऊ को दाहिने कान पर चढ़ा ले और भूमि को तिनके से ढककर अपने मस्तक को वस्त्र से आच्छादित कर ले। शौच के समय मुख को यत्न पूर्वक मूँदे रखे। न तो थूके और न मुँह से ऊपर को साँस ही खींचें। मलत्याग के पश्चात् गुदाभाग तथा हाथ को इस प्रकार धोये जिससे मल का लेप और दुर्गन्ध दूर हो जाय। इस कार्य में आलस्य नहीं करना चाहिये। पाँच बार गुदा में, दस बार बायें हाथ में तथा सात-सात बार दोनों हाथों में मिट्टी लगाकर धोये। फिर एक बार लिङ्ग में, तीन बार बायें हाथ में और दो-दो बार दोनों हाथों में मिट्टी लगाकर धोये। यह गृहस्थ के लिये शौच की विधि बतायी गयी। ब्रह्मचारी के लिये इससे दूना, वान प्रस्थ के लिये तिगुना और संन्यासी के लिये चौगुना करने का विधान है। रात को दिन की अपेक्षा आधे शौच (मिट्टी लगाकर धोने) का नियम है। रास्ता चलने वाले व्यक्ति के लिये, स्त्री के लिये तथा शूद्रों के लिये उससे भी आधे शौच का विधान है। शौच कर्म से हीन पुरुष की समस्त क्रियाएँ निष्फल होती हैं। जो अपने मुँह को अच्छी तरह साफ नहीं रखता, उसके उच्चारण किये हुए मन्त्र फलदायक नहीं होते; इसलिये प्रयत्नपूर्वक दाँत और जीभ की शुद्धि करनी चाहिये। गृहस्थ पुरुष किसी दूध वाले वृक्ष की बारह अंगुल की लकड़ी लेकर दाँतुन करे; किन्तु यदि घर में पिता की क्षयाह तिथि या व्रत हो तो दाँतुन न करे। दाँतुन करने के पहले वनस्पति देवता से इस प्रकार प्रार्थना करें–

आयुर्बलं यशो वर्चः प्रजाः पशुवसूनि च।
ब्रह्मप्रज्ञां च मेधां च त्वं नो देहि वनस्पते॥
(९४ ११)

‘हे वनस्पते! आप मुझे आयु, बल, यश, तेज, संतति, पशु, धन, ब्रह्मज्ञान और स्मरणशक्ति प्रदान करें।’
इस मन्त्र का उच्चारण करके दाँतुन से दाँत साफ करना चाहिये। प्रतिपदा, अमावास्या, नवमी, षष्ठी, रविवार तथा चन्द्रमा और सूर्य के ग्रहण के दिन दाँतुन नहीं करना चाहिये। व्रत और श्राद्ध के दिन भी लकड़ी की दाँतुन करना मना है, उन दिनों जल के बारह कुल्ले करके मुख शुद्ध करने का विधान है। काँटेदार वृक्ष, कपास, सिन्धुवार, ब्रह्मवृक्ष (पलाश), बरगद, एरण्ड (रेंड) और दुर्गन्धयुक्त वृक्षों की लकड़ी को दाँतुन के काम में नहीं लेना चाहिये। फिर स्नान करने के पश्चात् भक्तिपरायण एवं प्रसन्नचित्त होकर चन्दन, फूल और ताम्बूल आदि पूजा की सामग्री ले भगवान् विष्णु अथवा शिव के मन्दिर में जायें। वहाँ भगवान्‌ को पृथक्-पृथक् पाद्य-अर्घ्य आदि उपचार अर्पण करके स्तुति करे तथा पुनः नमस्कार करके गीत आदि माङ्गलिक उत्सव का प्रबन्ध करें। ताल, वेणु और मृदङ्ग आदि बाजों के साथ भगवान्‌ के सामने नृत्य और गान करने वाले लोगों का भी ताम्बूल आदि के द्वारा सत्कार करे। जो भगवान् के मन्दिर में गान करते हैं, वे साक्षात् विष्णुरूप हैं। कलियुग में किये हुए यज्ञ, दान और तप भक्ति से युक्त होने पर ही जगद्गुरु भगवान् को संतोष देने वाले होते हैं।
शिरीष (सिरस), उन्मत्त (धतूरा), गिरिजा (मातुलुङ्गी), मल्लिका (मालती), सेमल, मदार और कनेर के फूलों से तथा अक्षतों के द्वारा श्रीविष्णु की पूजा नहीं करनी चाहिये। जवा, कुन्द, सिरस, जूही, मालती और केवड़े के फूलों से श्रीशंकरजी का पूजन नहीं करना चाहिये। लक्ष्मी प्राप्ति की इच्छा रखने वाला पुरुष तुलसीदल से गणेश का, दूर्वादल से दुर्गा का तथा अगस्त्य के फूलों से सूर्यदेव का पूजन न करे। इनके अतिरिक्त जो उत्तम पुष्प हैं, वे सदा सब देवताओं की पूजा के लिये प्रशस्त माने गये हैं। इस प्रकार पूजा विधि पूर्ण करके देवदेव-भगवान् से क्षमा प्रार्थना करें–

मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं सुरेश्वर।
यत्पूजितं मया देव परिपूर्णं तदस्तु मे॥
(९४|३०)

‘देवेश्वर ! देव! मेरे द्वारा किये गये आपके पूजन में जो मन्त्र, विधि तथा भक्ति की न्यूनता हुई हो, वह सब आपकी कृपा से पूर्ण हो जाय।’
तदनन्तर प्रदक्षिणा करके दण्डवत् प्रणाम करें तथा पुनः भगवान् से त्रुटियों के लिये क्षमा याचना करते हुए गायन आदि समाप्त करे। जो इस कार्तिक की रात्रि में भगवान् विष्णु अथवा शिव की भलीभाँति पूजा करते हैं वे मनुष्य पापहीन हो अपने पूर्वजों के साथ श्रीविष्णु के धाम में जाते हैं।
जब दो घड़ी रात बाकी रहे तब तिल, कुश, अक्षत, फूल और चन्दन आदि लेकर पवित्रता पूर्वक जलाशय के तटपर जाय। मनुष्यों का खुदवाया हुआ पोखरा हो अथवा कोई देवकुण्ड हो या नदी अथवा उसका संगम हो–इनमें उत्तरोत्तर दसगुने पुण्य की प्राप्ति होती है तथा यदि तीर्थ में स्नान करें तो उसका अनन्त फल माना गया है। तत्पश्चात् भगवान् विष्णु का स्मरण करके स्नान का संकल्प करें तथा तीर्थ आदि के देवताओं को क्रमश: अर्घ्य आदि निवेदन करें। फिर भगवान् विष्णु को अर्घ्य देते हुए निम्नांकित मन्त्र का पाठ करें–

नमः कमलनाभाय नमस्ते जलशायिने।
नमस्तेऽस्तु हृषीकेश गृहाणार्घ्यं नमोऽस्तु ते॥
× × ×
कार्त्तिकेऽहं करिष्यामि प्रातःस्नानं जनार्दन।
प्रीत्यर्थं तव देवेश दामोदर मया सह॥
ध्यात्वाऽहं त्वां च देवेश जलेऽस्मिन् स्नातुमुद्यतः।
तव प्रसादात्पापं मे दामोदर विनश्यतु॥
(९५। ४, ७, ८)

‘भगवान् पद्मनाभ को नमस्कार है। जल में शयन करने वाले श्रीनारायण को नमस्कार है। हृषीकेश ! आपको बारम्बार नमस्कार है। यह अर्घ्य ग्रहण कीजिये। जनार्दन ! देवेश ! लक्ष्मी सहित दामोदर! मैं आपकी प्रसन्नता के लिये कार्तिक में प्रातः स्नान करूँगा। देवेश्वर! आपका ध्यान करके मैं इस जल में स्नान करने को उद्यत हूँ। दामोदर ! आपकी कृपा से मेरा पाप नष्ट हो जाय।’
तत्पश्चात् राधा सहित भगवान् श्रीकृष्ण को निम्नांकित मन्त्र से अर्घ्य दे–

नित्ये नैमित्तिक कृष्ण कार्त्तिके पापनाशने।
गृहाणार्घ्यं मया दत्तं राधया सहितो हरे॥
(९५|९)

श्रीराधा सहित भगवान् श्रीकृष्ण ! नित्य और नैमित्तिक कर्मरूप इस पापनाशक कार्त्तिक स्नान के व्रत के निमित्त मेरा दिया हुआ यह अर्घ्य स्वीकार करें।’
इसके बाद व्रत करने वाला पुरुष भागीरथी, श्रीविष्णु, शिव और सूर्यका स्मरण करके नाभि के बराबर जल में खड़ा हो विधि पूर्वक स्नान करे। गृहस्थ पुरुष को तिल और आँवले का चूर्ण लगाकर स्नान करना चाहिये। वनवासी संन्यासी तुलसी के मूल की मिट्टी लगाकर स्नान करे। सप्तमी, अमावास्या, नवमी, द्वितीया, दशमी और त्रयोदशी को आँवले के फल और तिल के द्वारा स्नान करना निषिद्ध है। पहले मल-स्नान करे अर्थात् शरीर को खूब मल-मलकर उसकी मैल छुड़ाये। उसके बाद मन्त्र स्नान करे। स्त्री और शूद्रों को वेदोक्त मन्त्रों से स्नान नहीं करना चाहिये। उनके लिये पौराणिक मन्त्रों का उपयोग बताया गया है।
व्रती पुरुष अपने हाथ में पवित्रक धारण करके निमांकित मन्त्रों का उच्चारण करते हुए स्नान करें–

त्रिधाभूदेवकार्यार्थं यः पुरा भक्तिभावितः।
स विष्णुः सर्वपापघ्नः पुनातु कृपयात्र माम्॥
विष्णोराज्ञामनुप्राप्य कार्तिकव्रतकारणात्।
क्षमन्तु देवास्ते सर्वे मां पुनन्तु सवासवाः॥
वेदमन्त्रा: सबीजाश्च सरहस्या मखान्विताः।
कश्यपाद्याश्च मुनयो मां पुनन्तु सदैव ते॥
गङ्गाद्याः सरितः सर्वास्तीर्थानि जलदा नदाः।
ससप्तसागरा: सर्वे मां पुनन्तु सदैव ते॥
पतिव्रतास्त्वदित्याद्या यक्षाः सिद्धाः सपन्नगाः।
ओषध्यः पर्वताश्चापि मां पुनन्तु त्रिलोकजाः॥
(९५।१४-१८)

‘जो पूर्वकाल में भक्ति पूर्वक चिन्तन करने पर देवताओं के कार्य की सिद्धि के लिये तीन स्वरूपों में प्रकट हुए तथा जो समस्त पापों का नाश करने वाले हैं, वे भगवान् विष्णु यहाँ कृपा पूर्वक मुझे पवित्र करें। श्रीविष्णु की आज्ञा प्राप्त करके कार्तिक का व्रत करने के कारण यदि मुझसे कोई त्रुटि हो जाय तो उसके लिये समस्त देवता मुझे क्षमा करें तथा इन्द्र आदि देवता मुझे पवित्र करें। बीज, रहस्य और यज्ञों सहित वेदमन्त्र और कश्यप आदि मुनि मुझे सदा ही पवित्र करें। गङ्गा आदि सम्पूर्ण नदियाँ, तीर्थ, मेघ, नद और सात समुद्र–ये सभी मुझे सर्वदा पवित्र करें। अदिति आदि पतिव्रताएँ, यक्ष, सिद्ध, नाग तथा त्रिभुवन की ओषधि और पर्वत भी मुझे पवित्र करें।’
स्नानके पश्चात् विधि पूर्वक देवता, ऋषि, मनुष्य (सनकादि) तथा पितरों का तर्पण करें। कार्तिक मास में पितृ तर्पण के समय जितने तिलों का उपयोग किया जाता है उतने ही वर्षों तक पितर स्वर्ग लोक में निवास करते हैं।
तदनन्तर जल से बाहर निकलकर व्रती मनुष्य पवित्र वस्त्र धारण करे और प्रातःकालोचित नित्यकर्म पूरा करके श्रीहरि का पूजन करें। फिर भक्ति से भगवान्‌ में मन लगाकर तीर्थों और देवताओं का स्मरण करते हुए पुनः गन्ध, पुष्प और फल से युक्त अर्घ्य निवेदन करे। अर्घ्य का मन्त्र इस प्रकार है–

व्रतिनः कार्त्तिके पासि स्नातस्य विधिवन्मम।
गृहाणार्घ्यं मया दत्तं राधया सहितो हरे॥
(९५।२३)

‘भगवन्! मैं कार्तिक मास में स्नान का व्रत लेकर विधि पूर्वक स्नान कर चुका हूँ। मेरे दिये हुए इस अर्घ्य को आप श्रीराधिकाजी के साथ स्वीकार करें।’
इसके बाद वेदविद्या के पारंगत ब्राह्मणों का गन्ध, पुष्प और ताम्बूल के द्वारा भक्ति पूर्वक पूजन करें और बारम्बार उनके चरणों में मस्तक झुकावें। ब्राह्मण के दाहिने पैर में सम्पूर्ण तीर्थ, मुख में वेद और समस्त अङ्गों में देवता निवास करते हैं; अतः ब्राह्मण के पूजन करने से इन सबकी पूजा हो जाती है। इसके पश्चात् हरिप्रिया भगवती तुलसी की पूजा करें। प्रयाग में स्नान करने, काशी में मृत्यु होने और वेदों के स्वाध्याय करने से जो फल प्राप्त होता है; वह सब श्रीतुलसी के पूजन से मिल जाता है, अत: एकाग्रचित्त होकर निम्नांकित मन्त्र से तुलसी की प्रदक्षिणा और नमस्कार करें–

देवैस्त्वं निर्मिता पूर्वमर्चिताऽसि मुनीश्वरैः।
नमो नमस्ते तुलसि पापं हर हरिप्रिये॥
(९५।३०)

‘हरिप्रिया तुलसीदेवी! पूर्वकाल में देवताओं ने तुम्हें उत्पन्न किया और मुनीश्वरों ने तुम्हारी पूजा की। तुम्हें बारम्बार नमस्कार है। मेरे सारे पाप हर लो।’
तुलसी पूजन के पश्चात् व्रत करने वाला भक्तिमान् पुरुष चित्त को एकाग्र करके भगवान् विष्णु की पौराणिक कथा सुने तथा कथावाचक विद्वान् ब्राह्मण अथवा मुनि की पूजा करे। जो मनुष्य भक्तियुक्त होकर पूर्वोक्त सम्पूर्ण विधियों का भलीभाँति पालन करता है, वह अन्त में भगवान् नारायण के परमधाम में जाता है।

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