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गैरसैंण को प्रदेश की ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित कर सीएम रावत ने लगाया मास्टर स्ट्रोक, क्या होगा कारगर साबित

सीएम रावत 2 गैरसैंण को प्रदेश की ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित कर सीएम रावत ने लगाया मास्टर स्ट्रोक, क्या होगा कारगर साबित

नई दिल्ली। राज्य गठन के 19 साल बीत जाने के बाद गैरसैंण को प्रदेश की ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित कर मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने मास्टर स्ट्रोक लगाया है। लेकिन यह कितना कारगर साबित होगा, यह अभी भविष्य के गर्भ में है। गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित करने में मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत बाजी मार ले गए। पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत इस बात की कल्पना ही करते-करते सियासी दावपेंच, प्रतिक्रिया, उठा पटक के गणित में उलझ गए थे। सीएम त्रिवेंद्र सिंह रावत ने रिस्क लिया और बेहद सधा हुआ निशाना लगाया।

त्रिवेंद्र का वार इतना सटीक था कि सत्ता पक्ष के गैरसैंण समर्थक विधायकों तक को यकीन करने में थोड़ा समय लगा। विपक्ष चारों खाने चित हुआ। सादगी यह रही कि ग्रीष्मकालीन राजधानी बनी गैरसैंण फिलहाल सड़कों से लेकर रहने और ठरहने से लेकर अन्य बुनियादी सुविधा की मोहताज है। सीएम के भराड़ीसैंण में अचानक इसकी घोषणा करने और बेहद भावुक हो जाने से झलकता है कि ग्रीष्मकालीन राजधानी का खाका अभी उनके मन में ही है। इसके बावजूद सीएम ने बड़े ही सधे हुए अंदाज में ग्रीष्मकालीन राजधानी की घोषणा की।

जाहिर है कि ग्रीष्मकालीन राजधानी का अंजाम क्या होगा, यह सीएम के मन में बसे सपने, आकार लेती कल्पना, इस कल्पना को धरातल पर उतारने के लिए जरूरी बजट आदि पर निर्भर करेगा। सियासी पंडित अब भले ही गुणा भाग करते रहें कि गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाने का रोडमैप सरकार ने सामने रखा ही नहीं, लेकिन अपने इस मास्टर स्टोक से सीएम लोगों की भावनाओं को चुनाव से ठीक दो साल पहले अपनी और भाजपा की तरफ जरूर मोड़ ले गए।

भराड़ीसैंण में सुविधाओं का अभाव है। सुविधाओं के नाम पर विधान भवन और कुछ आवासीय परिसर हैं। इसके अलावा पानी, कनेक्टिविटी और बुनियादी ढांचा भी विकसित नहीं है। ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाने से सरकार को अब यहां पर सरकारी अमले के लिए पूरी व्यवस्था करनी होगी। सबसे जरूरी बुनियादी ढांचा तैयार करना होगा।

मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत की ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित करने की मंशा पर सवाल उठने लगे हैं। राज्य आंदोलनकारी लंबे समय से गैरसैंण को स्थायी राजधानी बनाने की मांग कर रहे हैं। विधानसभा अध्यक्ष प्रेम चंद अग्रवाल भी इसकी पैरोकारी करते रहे। सीएम की इस घोषणा ने विपक्ष के हाथ मुद्दा थमा दिया कि सरकार ग्रीष्मकालीन पर ही क्यों ठिठकी है। आने वाले दिनों में विपक्ष इसको बड़ा मुद्दा बनाने की तैयारी में है। ऐसे में भाजपा के सामने सवाल खड़ा रहेगा कि घोषणा करने में जल्दबाजी तो नहीं हो गई।

मुख्यमंत्री की ग्रीष्मकालीन राजधानी की घोषणा भले ही भाजपा के लिए मास्टर स्ट्रोक हो, लेकिन सरकार को अगले एक साल में कई कड़े फैसले लेने होंगे। भराड़ीसैंण में केवल विधान भवन निर्माण से ही जन भावनाएं शांत नहीं होंगी। सरकार अमले को गैरसैंण पहुंचना एक बड़ी चुनौती है। पौड़ी मंडल मुख्यालय में अफसरों को बैठाने में नाकाम रही सरकार गैरसैंण तक कैसे पहुंचाएगी।

गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाने की घोषणा पर अगर कम शब्दों में कहें तो यह बीस साल में अढाई कोस चलने जैसा है। लेकिन एक दूसरा नजरिया यह भी है कि अढाई कोस ही सही, कम से कम चले तो सही। तो क्या ग्रीष्मकालीन राजधानी की घोषणा को हम देहरादून से गैरसैंण की तरफ  चला पहला बड़ा कदम मान सकते हैं? इस फैसले की रौशनी में क्या हमें भविष्य में गैरसैंण को स्थायी राजधानी बनाए जाने का कोई रास्ता नजर आता है? क्या भविष्य में सरकार के पहाड़ चढ़ने की कोई उम्मीद नजर आती है? ऐसा दावा कर पाना अभी थोड़ा जल्दबाज़ी लग रहा है।

अविभाजित उत्तरप्रदेश में जब पहली बार भाजपा की सरकार बनी थी तो नवंबर 1991 में पहली बार गैरसैंण पर बड़ी मुहर लगी थी। तत्कालीन यूपी सरकार के तीन मंत्रियों ने गैरसैंण में अपर शिक्षा निदेशालय, पर्वतीय का बड़े जोर-शोर से उद्घाटन किया था। यह भविष्य की राजधानी के तौर पर गैरसैंण को सरकारी मान्यता मिलने जैसा फैसला था।

 इसके अगले ही साल 1992 में उत्तराखंड क्रांति दल ने ब्रिटिशराज में पेशावर विद्रोह महानायक चंद्र सिंह गढ़वाली के नाम पर गैरसैंण को चंद्रनगर नाम दिया और राजधानी का धूमधाम से औपचारिक उद्घाटन कर दिया। वहां गढ़वाली की प्रतिमा भी लगाई गई। यह इलाका पेशावर कांड के नायक चंद्र सिंह गढ़वाली की जन्मभूमि भी है। यही नहीं, 1994 में यूपी की तत्कालीन मुलायम सिंह सरकार द्वारा बनाई गई रमाशंकर कौशिक समिति की रिपोर्ट में भी राजधानी के लिए लगभग दो तिहाई लोगों ने गैरसैंण के पक्ष में मत दिया।

लेकिन गैरसैंण के साथ राजनीतिक छल हुआ साल 2000 में। जब संसद से पारित प्रस्ताव के बाद 8 व 9 नवंबर 2000 की आधी रात को उत्तराखंड देश का 27वां राज्य बना था। उस समय केंद्र में सत्तारूढ़ वाजपेयी सरकार ने देहरादून को इस राज्य की अस्थायी राजधानी बना दिया। हालांकि इसका कोई जिक्र उत्तर प्रदेश पुनर्गठन कानून 2000 में नहीं है।

गैरसैंण के पक्ष में सबसे बड़ी बात उसकी भौगोलिक स्थिति है। यह जगह उत्तराखंड के दो छोरों के ठीक बीच में स्थित है। वरना अभी देहरादून आने के लिए उत्तराखंड के कई इलाकों के लोगों को यूपी का चक्कर काटकर आना पड़ता है। 1994 में यूपी सरकार की मंत्रिपरिषदीय कमेटी ने भी गैरसैंण के केंद्र में होने को तरजीह दी।

 राजधानी के तौर पर गैरसैंण दरअसल पर्वतीय राज्य की अवधारणा की ही अभिव्यक्ति है, जिसे उत्तर प्रदेश पुनर्गठन अधिनियम 1998 में बदलावों के जरिये छिन्न-भिन्न कर दिया गया। यही अधिनियम बाद में उत्तर प्रदेश पुनर्गठन अधिनियम 2000 बना और उत्तराखंड राज्य अस्तित्व में आया।

गैरसैंण की जरूरत इसलिए भी ज्यादा महसूस होती है क्योंकि उत्तराखंड के एक बड़े हिस्से के लिए देहरादून में राजधानी दरअसल लखनऊ के स्थानीय संस्करण से ज्यादा कुछ साबित नहीं हो पाई। सिर्फ  जगह बदली है, इसलिए गैरसैंण के मायने समझ में आते हैं। उत्तराखंड राज्य के गठन के मूल में भी यही मंशा थी। इसकी झलक 24 अगस्त 1994 को यूपी की विधानसभा में पास प्रस्ताव में भी थी।

जब पर्वतीय जनपदों को मिलाकर पृथक उत्तराखंड राज्य बनाने का प्रस्ताव पास किया गया था। उसमें लिखा है, इस सदन का निश्चित मत है कि उत्तर प्रदेश राज्य के पर्वतीय क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति और उस क्षेत्र की विशिष्ट आर्थिक एवं प्रशासनिक अनिवार्यताओं को दृष्टिगत रखते हुए उस क्षेत्र के लिए अलग राज्य की स्थापना की जाए।

सबसे हैरान करने वाली बात तो यह है कि जिस कौशिक समिति की रिपोर्ट की बुनियाद पर उत्तराखंड राज्य बना, राजधानी के मसले पर उसी कौशिक समिति की संस्तुतियों को राज्य बनाने के दौरान रद्दी में डाल दिया गया था। हालांकि ऐसी आशंकाएं भी अपनी जगह हैं कि पिछले बीस बरस में उत्तराखंड में जिस तरह की कार्य संस्कृति पैदा हो गई है, क्या राजधानी की भौगोलिक स्थिति बदल जाने से उसमें भी कुछ बदलाव आएगा।

 इस चिंता के बीच एक सच यह भी है कि गैरसैंण का परमानेंट राजधानी हो जाना उत्तराखंड के पर्वतीय इलाकों के साथ-साथ देहरादून की सेहत के लिए भी अच्छा है। इसलिए अगर ग्रीष्मकालीन राजधानी की घोषणा का रास्ता स्थायी राजधानी की ओर जाता है तो इसका स्वागत किया जा सकता है। वरना इस फैसले में गैरसैंण के सिर्फ  राजनीतिक सैरसपाटे की जगह बनकर रह जाने का खतरा भी है।

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