- रिचा चतुर्वेदी
सोसायटी में खड़ा बांधा हुआ ट्रक देख रही हूँ। बचपन से ही काफी घर, काफी शहर ट्रांसफर्स के चलते बदले हैं। सामान बंधता है तो हर कमरा कुछ पुठ्ठे के बाक्सेस में सिमटने लगता है। जो बांधा नहीं जाता वो बाँट दिया जाता है।
बस हर छूटे हुए घर के कोने में कुछ गुजरा वक़्त रह जाता है उस घर से शहर से जुड़ी चीजें वहीं चुप सी ठहर जाती हैं। दीवार पर कीलों के निशान वहां से उतरी तस्वीर की याद दिलाते हैं। कुछ ट्रांसफर्स के साथ बगीचे में लगा पेड़ छूट जाता हैं, कहीं पर गर्मियों में बच्चों का स्वीमिंग पूल बनती टंकी छूट जाती हैं और कहीं अम्मा का नुक्कड़ के मंदिर का कीर्तन रह जाता है। कुछ चीजें पैक होती ही नहीं।
कुछ घरों के पड़ोस में बहुत से रिश्ते रह जाते हैं, कुछ ऐसे जिनसे बाद में मिलना ही नहीं होता, साथ के मकान वाली वो छोटी सी बच्ची जो आप को देख के मासूमियत से मुस्कुराती थी या वो अंकल जो दिखते काफी सीरियस थे पर लिफ्ट आप के लिए एक्स्ट्रा रोक लेते थे।
हम फिर निकलते है नए आशियाने के किसी अनजाने से दरवाजे पर अपने नाम की तख्ती टांगने, कहीं दूर बंधे हुए बाक्सेस फिर से खुलते है पुठ्ठे के डिब्बों से निकलकर कमरे में सामान जमने लगता है और नई बालकनी से बच्चे पार्क में झांकते है हम उम्र साथियों की तलाश और पुराने दोस्तों की याद एक साथ उनकी आँखों में चमक आती है।