लखनऊ। साल 2017 में सहारनपुर (Saharanpur) के जातीय दंगे से निकलकर दलित राजनीति (Dalit politics) का चेहरा बनने की कवायदों में जुटे आजाद समाज पार्टी (Azad Samaj Party) के अध्यक्ष और भीम आर्मी (Bheem Army) के संस्थापक चंद्रशेखर आजाद (Chandrashekhar Azad ) यूपी में सियासी जमीन की तलाश कर रहे हैं। हालांकि, इस सियासी जमीन पर खुद को स्थापित करने के लिए वे गठबंधन की कवायदों में भी जुटे हुए हैं।
इस बीच 2022 के विधानसभा चुनाव के ठीक पहले उन्होंने ‘बहुजन साइकिल यात्रा’ (Bahujan Cycle Yatra) का ऐलान किया है। इस यात्रा के पीछे चंद्रशेखर (Chandrashekhar Azad) की कई राजनीतिक अपेक्षाएं हैं। उनकी यह यात्रा सपा (SP) मुखिया अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) की कार्यशैली की याद दिलाती है। एक जुलाई से चंद्रशेखर आजाद साइकिल यात्रा की शुरूआत करेंगे।
2012 बहुजन समाज पार्टी (Bahujan Samaj Party) की सरकार के खिलाफ अखिलेश यादव ने पूरे प्रदेश में साइकिल यात्रा का आह्वान किया था। यूपी की राजनीति में स्थापित होने के लिए अखिलेश का यह दांव सफल हुआ और 2012 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी को प्रचंड बहुमत भी मिला। उनके इसी योगदान को देखते हुए तत्कालीन सपा अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव (Mulayam Singh Yadav) ने अखिलेश यादव को सीएम चेहरा (CM Face) प्रोजेक्ट कर दिया।
सपा की इस साइकिल यात्रा का परिणाम यह हुआ कि बहुमत के साथ सरकार चला रहीं मायावती (Mayawati) को 2012 के विधानसभा चुनाव में करारी हार का सामना करना पड़ा। सपा ने यूपी की 403 विधानसभा सीटों में से रिकॉर्ड 224 सीटें अपने नाम कीं। जबकि, सत्तारूढ़ बसपा (BSP) को मात्र 79 सीटों से ही संतोष करना पड़ा और वहीं बीजेपी (BJP) को इस चुनाव में 47 सीटों पर सफलता हासिल हुई। 38 सीटों के साथ कांग्रेस (Congress) ने तीसरे स्थान पर जगह बनाई।
सत्ता मिलने के बाद संघर्ष से दूर होते गए अखिलेश
2012 में समाजवादी पार्टी ने पूर्ण बहुमत हासिल किया तो अखिलेश यादव को सीएम बना दिया गया। लेकिन, 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने चुनाव के ठीक पहले पलटवार करते हुए सपा-बसपा के सभी समीकरणों को ध्वस्त करते हुए सभी रिकॉर्ड को ध्वस्त करते हुए 325 सीटें अपने नाम की। सत्ताधारी सपा को 47 और बसपा को 19 सीटें ही मिलीं। कांग्रेस को सात सीटों पर ही संतोष करना पड़ा। सबसे मजेदार तथ्य यह रहा कि सपा ने कांग्रेस के साथ गठबंधन करके यह चुनाव लड़ा था।
हालांकि, 2017 के विधानसभा चुनाव के ठीक पहले सपा अखिलेश और उनके चाचा शिवपाल यादव (Shivpal Yadav) के बीच दो फाड़ हो गई थी। इसका खामियाजा सपा को उठाना पड़ा। पार्टी के अंदर गुटबाजी, अध्यक्ष पद की दावेदारी के विवादों में अखिलेश यादव उलझते गए और समाजवादी आंदोलनों से दूर हो गए। इस बीच तमाम राजनीतिक विद्वानों ने अखिलेश के संघर्ष से दूर होने की आलोचना भी की। हालांकि, अखिलेश यादव ने योगी सरकार (Yogi Government) के खिलाफ भी साइकिल यात्रा का कार्यकर्ताओं से आह्वान किया लेकिन इसका असर नहीं दिखा। फिलहाल 2022 की जंग की तैयारी अब जोरों से की जा रही है।
चंद्रशेखर को मिलेगी अखिलेश जैसी सफलता!
इस बीच 2022 के चुनाव के ठीक पहले साइकिल यात्रा का ऐलान कर चंद्रशेखर आजाद सुर्खियों में आ गए हैं। उनकी इस यात्रा को अखिलेश की यात्रा से जोड़कर देखा जा रहा है। हालांकि, चंद्रशेखर कहते हैं कि यह बहुजन साइकिल यात्रा है। वे और उनकी पार्टी बसपा संस्थापक कांशीराम से प्रेरित है। ऐसे में साइकिल यात्रा किसी और की नहीं बल्कि कांशीराम (Kanshiram) की रणनीति से जुड़ा हुआ है। चंद्रशेखर कहते हैं कि साइकिल यात्राओं के जरिए ही कांशीराम ने देश भर के दलितों को जोड़ने का काम किया। यूपी जैसे बड़े सूबे में सत्ता तक हासिल की। ऐसे में उनकी पार्टी भी कांशीराम के नक्शेकदम पर ही चलकर रणनीतियों पर काम करेगी।
कांशीराम के नाम पर बहुजनों को जोड़ने की कवायद
बसपा संस्थापक कांशीराम के नाम पर अपने सियासी कैरियर को धार देने में जुटे चंद्रशेखर पूरे प्रदेश में बहुजन साइकिल यात्रा का आगाज करने को तैयार हैं। इस बहुजन यात्रा के बहाने और कांशीराम के नाम पर वे बहुजनों (सामाजिक न्याय की अवधारणा में विश्वास रखने वाले दलितों, पिछड़ों व अल्पसंख्यकों) को जोड़ने की कवायद करेंगे। चंद्रशेखर के मुताबिक वे अपनी इस साइकिल यात्रा में भाजपा की योगी सरकार की वादाखिलाफी से लोगों को अवगत कराएंगे।
चंद्रशेखर आजाद नौकरियों में एससी-एसटी व ओबीसी के आरक्षण पर हो रहे हमले को मुद्दा बनाएंगे। इतना ही नहीं चंद्रशेखर ने ‘मान्यवर कांशीराम का मिशन अधूरा, हम सब मिलकर करेंगे पूरा’ का नारा दिया है। जबकि, बसपा ने ‘बाबा साहब तेरा मिशन अधूरा, हम सब मिलकर करेंगे पूरा’ का नारा दिया था और बड़ी सफलता हासिल की थी।
दलित राजनीति का प्रमुख चेहरा बनने की लड़ाई
देश की राजनीति में दलित नेता के रूप में सर्वमान्य और स्थापित नेता अभी तक बसपा सुप्रीमो मायावती ही हैं। लेकिन, दलित समाज की नई पौध में चंद्रशेखर भी अब स्थापित होने लगे हैं। मायावती के बरक्श चंद्रशेखर देश की सियासत में दलित चेहरा बनकर उभरने को बेताब हैं।
बसपा सुप्रीमो मायावती भी चंद्रशेखर की इस मंशा को भली भांति जानती हैं। यही कारण है कि वो चंद्रशेखर से दूरी बनाकर चलती हैं और उन पर बीजेपी-कांग्रेस का एजेंट होने का आरोप भी मढ़ती हैं। जबकि, चंद्रशेखर भी मायावती को दलित नहीं ब्राह्मणों इशारे पर राजनीति करने का आरोप मढ़ते हैं।
मायावती और चंद्रशेखर की इस सियासी लड़ाई के पीछे यूपी के 22 फीसदी दलित मतदाता हैं। मायावती और चंद्रशेखर के साथ ही सभी विपक्षी दलों की नजर इस वोट बैंक पर है। इस 22 फीसदी दलित वोटर में जाटवों की संख्या करीब 12 फीसदी है। जो बसपा का कोर वोटर माना जाता है।
जबकि, दूसरे दल गैर जाटव वोटरों को लुभाने की कवायदों में जुटे हुए हैं। मायावती भी अभी तक जाटव वोटरों पर अपना एकाधिकार मानती रही हैं। उन्हें चंद्रशेखर के आने के बाद इन वोटरों के खिसकने का खतरा पहली बार महसूस हो रहा है। जबकि, गैर जाटव वोटरों के बसपा से खिसकने का सिलसिला काफी पहले से ही शुरू हो चुका है।
सुरक्षित सीटों पर है सबकी नजर
उत्तर प्रदेश की सत्ता के लिए 202 सीटों का बहुमत जरूरी है। जबकि, यहां पर दलित आबादी के लिहाज से 87 सीटें सुरक्षित हैं। जिसमें एससी के लिए 85 और दो एसटी की सीटें हैं। पिछले चुनावों पर नजर डालें तो यहां पर जिस पार्टी ने इन सुरक्षित सीटों पर कब्जा जमाया है, उसने सत्ता हासिल की है।
साल 2009 के विधानसभा चुनाव में बसपा ने 62 सुरक्षित सीटों पर जीत हासिल की थी। नतीजा 207 सीटों के साथ बहुमत मिला था। जबकि, 2012 में सपा ने इन सुरक्षित सीटों से बसपा को साफ करते हुए 58 सीटें अपने नाम की और प्रदेश में कुल 224 सीटों पर जीत के साथ बहुमत हासिल किया।
वहीं 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 87 में से रिकॉर्ड 69 सीटें जीतीं और प्रदेश में 325 सीटों के साथ सत्ता पर आसीन हुई। अब ऐसे में दलित राजनीति की सियासत करने वाली बसपा के बाद अब आसपा की भी नजर इस पर बनी होगी।