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चन्द्रशेखर आजाद स्पेशल: क्रान्ति का मार्ग चुन अंग्रेजों से की लड़ाई, रचा इतिहास, मां भारती के इस सपूत की आज पुण्यतिथि

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चोरी -चोरा की घटना आज भी सभी को याद है। इस घटना ने सशस्त्र क्रांति की चिंगारी को हवा दी थी।

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एक समय तक देश के सभी युवा गांधीजी के नेतृत्व में आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे। लेकिन फरवरी माह के सन् 1922 में ऐतिहासिक चोरी -चोरा घटना ने सशस्त्र क्रांति की चिंगारी को हवा दे दी। जब भी हम देश के क्रांतिकारियों, आजादी के संघर्षों को याद करते है तो हमारे मन में एक खुले बदन, जनेऊधारी, हाथ में पिस्तौल लेकर मूछों पर ताव देते बलिष्ठ युवा की छवि उभर कर आ जाती है। जिसका नाम चंद्रशेखर आजाद है। आज उनकी पुण्यतिथि है।

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15 साल की उम्र में

इस घटना के तार जुड़े है, 13 अप्रैल 1919 को अमृतसर के जलियांवाला बाग में हुए भीषण नरसंहार से, जिसके बाद से ही देश भर के युवाओं में राष्ट्रचेतना का तेजी से प्रसार हुआ। बाद में जिसे सन 1920 में गांधी जी ने असहयोग आन्दोलन का रुप दिया। इस समय चन्द्रशेखर भी बतौर छात्र सडकों पर उतर आए। महज 15 साल की उम्र के चंद्रशेखर को आन्दोलन में भाग लेने वाले क्रांतिकारियों के साथ गिरफ्तार किया गया। मामले में जब कोर्ट में जज के सामने इन्हें पेश किया गया तब कोई नहीं जानता था कि यहां भारत का इतिहास गढ़ा जाने वाला है जो सदियों के लिए इस देश की अमर बलिदानी परंपरा में एक उदाहरण जोड़ देगी। जज को दिए सवालों के जवाब ने चंद्रशेखर के जीवन को नई दिशा दी।

जब जज का अपना नाम बताया आजाद

जज के पूछने पर अपना नाम आजाद, पिता का नाम स्वतंत्रता, घर का पता जेल बताया। जिससे अंग्रेज जज तिलमिला उठा और उसने उन्हें 15 कोड़ों की सजा सुना दी। कच्ची उम्र के इस बालक के नंगे बदन पर पड़ता हर एक कोड़ा चमड़ी उधेड़ कर ले आता। लेकिन इसके मुंह से बुलंद आवाज के साथ सिर्फ भारत माता की जय… वंदे मातरम के नारे ही सुनाई देते। वहां मौजूद लोगों ने आजाद की इस सहनशीलता और राष्ट्रभक्ति को देख दांतों तले उंगलियां दबा ली।

 

12 चन्द्रशेखर आजाद स्पेशल: क्रान्ति का मार्ग चुन अंग्रेजों से की लड़ाई, रचा इतिहास, मां भारती के इस सपूत की आज पुण्यतिथि

एमपी के झाबुआ में हुए पैदा

आजादी की लड़ाई को नई दिशा देने वाले इस विरले योद्धा का जन्म झाबुआ जिले के भाबरा गांव में 23 जुलाई सन् 1906 को पण्डित सीताराम तिवारी के यहां हुआ था। इस वीर बालक को अपनी कोख से जन्म देने वाली और अपने रक्त व दूध से सींचने वाली वीरमाता थी जगरानी देवी। चंद्रशेखर ने अपना बचपन आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र में गुजारा था। जहां वे भील बालकों के साथ खूब धनुष-बाण चलाया करते थे, जिसके कारण उनका निशाना अचूक हो गया था। उनका यह कौशल आगे चलकर भारत की स्वाधीनता के संघर्ष में खूब काम आया। आजाद के साथ क्रांतिकारी तो कई थे लेकिन राम प्रसाद बिस्मिल से उनकी खूब बनी। इनकी जोड़ी ने अंग्रेजों की जड़ें हिला कर रख दी।

चोरी -चोरा की घटना ने रचा इतिहास

Chandrashekhar Azad Birth Anniversary: चंद्रशेखर आजाद की जिदंगी के कुछ खास बातें,पढ़ें हमारी खास स्टोरी

सन् 1922 में ऐतिहासिक चोरी -चोरा की घटना ने सशस्त्र क्रांति की चिंगारी को हवा दे दी। उस समय में ब्रिटिश भारत के संयुक्त प्रांत उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले के चोरी -चोरा शहर में गांधीजी के असहयोग आंदोलन में प्रदर्शनकारियों का पुलिस से संघर्ष हुआ। भीड़ पर काबू करने के लिए पुलिस ने गोलियां चलाईं । जिसके बाद हालात तेजी से बिगड़े और भीड़ ने 22 पुलिसकर्मियों को थाने में बंद कर आग के हवाले कर दिया। इस घटना में हुई 3 नागरिकों और 22 पुलिसकर्मियों की मौत से आहत महात्मा गांधी ने तुरंत ही प्रभावी रुप से चल रहे असहयोग आंदोलन को रोक दिया। जिससे युवा क्रांतिकारियों के दल में भारी रोष उठा और उन्होंने अपना मार्ग गांधी से अलग कर लिया।

लूटे सरकारी खजाने

इसके बाद ही चंद्रशेखर आजाद हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन से जुड़े और उसके सक्रिय सदस्य बने। इसी दौरान उन्होंने राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में 9 अगस्त 1925 को काकोरी लूट को अंजाम दिया और फरार हो गए। ब्रिटिश सरकार ने इसमें हिंदुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन के कुल 40 क्रान्तिकारियों के विरुद्ध सशस्त्र युद्ध छेड़ने, सरकारी खजाना लूटने व यात्रियों की हत्या करने का मुकदमा चलाया जिसमें राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खाँ तथा ठाकुर रोशन सिंह को फांसी दे दी गई और अन्य को कठोर कारावास के लिए कालापानी भेज दिया गया।

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असेम्बली में हुआ बम काण्ड

अपने साथियों के बलिदान के बाद आजाद ने उत्तर भारत के सभी क्रांतिकारी दलों को एकजुट करके हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी का गठन किया। जिसमें उनके साथी भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव, जयदेव कपूर समेत कई क्रांतिकारी थे। जिन्होंने साथ मिलकर उग्र दल के नेता लाला लाजपतराय की हत्या का बदला अंग्रेजी अफसर सॉण्डर्स का वध करके लिया। आजाद कभी नहीं चाहते थे कि भगतसिंह खुद दिल्ली पहुंच कर असेम्बली बम काण्ड की घटना को अंजाम दे ।क्योंकि वो जानते थे कि इसके बाद एक बार फिर संगठन बिखर जायेगा लेकिन भगत नहीं माने और इस घटना को अंजाम दिया गया।

हर किसी ने किया निराश

हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी बिखर गया। आजाद ने असेम्बली बम कांड के मुकदमे में गिरफ्तार हुए अपने साथियों को छुड़ाने के लिए भरसक प्रयास किए। वे इस संदर्भ में पंडित गणेश शंकर विद्यार्थी और पंडित जवाहरलाल नेहरू से भी मिले । लेकिन बात नहीं बनी। उन्होंने वीरांगना दुर्गा भाभी को भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव की फांसी रुकवाने के लिए गांधीजी के पास भी भेजा। लेकिन गांधीजी ने भी उन्हें निराश कर दिया और उनके तीन और साथी आजादी के लिए फांसी पर झूल गए।

कनपटी पर दागी अंतिम गोली

फिर वो दिन आया जब मां भारती के इस लाल को इलाहाबाद के अलफ्रेड पार्क में घेर लिया गया। ये दिन था 27 फरवरी 1931 का, आजाद अपने साथी क्रांतिकारी सुखदेव राज से मिलने पहुंचे थे। वे दोनों पार्क में घूम ही रहे थे कि तभी अंग्रेज अफसर नॉट बावर अपने दल-बल के साथ वहां पर आ धमका जिसके बाद दोनों ओर से धुंआधार गोलीबारी शुरू हो गई। अचानक हुए इस घटनाक्रम में आजाद को एक गोली जांघ पर और एक गोली कंधे पर लग चुकी थीं। वे अपने साथी सुखदेव के साथ एक जामुन के पेड़ के पीछे जा छिपे और स्थिति को हाथ से निकलता देख अपने साथी सुखदेव को वहां से सुरक्षित निकाल दिया। इस दौरान आजाद ने 3 गोरे पुलिसवालों को भी ढेर कर दिया लेकिन अब उनके शरीर में लगी गोलियां अपना असर दिखाने लगी थीं।

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वहीं नॉट बावर अपने सिपाहियों के साथ अंधाधुंध गोलियां बरसा रहा था। आखिरकार आजाद की पिस्तौल खाली होने को आ गई। अब पास की गोलियां भी खत्म हो चुकी थीं लिहाजा इस वीर योद्धा ने अपनी पिस्तौल में बची अंतिम गोली को स्वयं की नियति में ही लिखने का साहसिक फैसला कर लिय। अब पार्क में सन्नाटा पसर गया नॉट बावर के तरफ से भी फायरिंग थम गई थीं आजाद हर्षित मन से जीवन की अंतिम घड़ियों में अपने देश की माटी और उसकी आबोहवा को महसूस कर रहे है और यकायक उनकी पिस्तौल आखिर बार गरजी और ये वो क्षण था जब उन्होंने उस पिस्तौल में बची अंतिम गोली को अपनी कनपटी पर दाग लिया था।

 

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नॉट बावर ने भी दी सलामी

मां भारती ने अपने लाल को खो दिया था लेकिन उसका खौफ अंग्रेजों में इस कदर हावी था कि गोरे सिपाही उसके मृत शरीर के पास तक आने से कतरा रहे थे और लगातार उन पर गोलियां बरसाए जा रहे थे। आखिर में चंद्रशेखर आजाद की इस बहादुरी से नॉट बावर इतना प्रभावित हो चुका था कि उसने खुद टोपी उतार कर आजाद को सलामी दी और उनकी पिस्तौल को अपने साथ अपने देश ले गया था, जिसे आजादी के बाद वापस भारत लाया गया।

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